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#बस यार में थक गई हूं
merisahelimagazine · 4 years
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कहानी- जहां न पहुंचे रवि... (Short Story- Jahan N Pahunache Ravi…)
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मैं स्तब्ध खड़ी रह गई थी. मेरा बुद्धिजीवी तार्किक मस्तिष्क संज्ञाशून्य हो गया था. तकनीक और विज्ञान हमें चांद-सूरज पर पहुंचा सकता है, पर किसी के दिल तक पहुंचने के लिए तो एक संवेदनशील दिल ही चाहिए.
बेटे पिंटू को फिज़ियोथेरेपी के लिए ले जाते हुए यह मेरा छठा दिन था. खेलते व़क्त गिर जाने के कारण उसके घुटने की सर्जरी हुई थी और अब फिर से अपने पैरों पर खड़े होने के लिए उसे लगभग दो महीने की फिज़ियोथेरेपी की आवश्यकता थी. फिज़ियोथेरेपी सेंटर लगभग पूरे दिन ही खुला रहता था, इसलिए मैं अपनी सुविधानुसार सुबह, दोपहर, शाम- कभी भी उसे लेकर वहां पहुंच जाती थी. कभी नए चेहरे नज़र आते, तो कभी रोज़वाले ही परिचित चेहरे. कुछ स्वयं चलकर आने वाले होते, कुछ को छोड़ने और लेने आनेवाले होते थे, तो कुछ मेरे जैसे भी थे, जो आरंभ से अंत तक पेशेंट के साथ ही बने रहते थे. मैं और पिंटू जल्द ही वहां के माहौल में अभ्यस्त होने लगे थे.
लगभग हर उम्र, धर्म और आर्थिक स्तर के स्त्री-पुरुष वहां आते थे. मैंने गौर किया अधिकांश पुरुष और कुछ महिलाएं तो आते ही अपने-अपने मोबाइल पर व्यस्त हो जाते. वाट्सऐप, फेसबुक, वीडियो गेम या फिर गाने सुनने में थेरेपी के उनके डेढ़-दो घंटे ऐसे ही निकल जाते. मैंने सोच लिया, अब से मैं भी सारे मैसेजेस वहीं देखा और भेजा करूंगी.
उस दिन यही सोचकर मैंने पर्स से मोबाइल निकालने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि पास के बेड पर लेटे एक बुज़ुर्ग सज्जन के सवाल ने मुझे चौंका दिया.
“एक्सीडेंट हुआ था क्या?”
“ज...जी. खेलते व़क्त घुटने का लिगामेंट रप्चर हो गया था. सर्जरी हुई है.” न चाहते हुए भी मेरे चेहरे पर 9 वर्षीय पिंटू के लिए चिंता की लकीरें उभर आई थीं.
“अरे, चिंता मत करो. जिस तरह अच्छा व़क्त जल्दी गुज़र जाता है, उसी तरह बुरा व़क्त भी ज़्यादा दिन नहीं ठहरता. जल्दी ठीक हो जाएगा. इस उम्र में रिकवरी जल्दी होती है. समस्या तो हम जैसों के साथ है.”
“आपको क्या प्रॉब्लम है?”
“फ्रोज़न शोल्डर्स! वैसे तो बुढ़ापा अपने आप में ही एक बीमारी है और उसमें भी कुछ समस्या हो जाए, तो लंबा खिंच जाता है. यहां आ जाता हूं, फिज़ियोथेरेपिस्ट की निगरानी में कुछ व्यायाम कर लेता हूं, मशीन से थोड़ी सिंकाई करवा लेता हूं, तो आराम मिल जाता है.”
“सही है. लोगों से मिलकर, बात करके थोड़ा मन भी बहल जाता होगा.” मैंने उनके समर्थन में सुर मिलाया.
“हां, पर आजकल लोगों के पास मिलने-बतियाने का व़क्त कहां है? देखो, सब के सब अपने-अपने मोबाइल पर व्यस्त हैं. मीलों दूर बैठे व्यक्ति को मैसेज पर मैसेज, फोटोज़ भेजते रहेंगे, पर मजाल है बगल में दर्द से कराहते व्यक्ति की ज़रा-सी सुध ले लें.”
इस बार मैं उनकी हां में हां नहीं मिला सकी. मेरे बुद्धिजीवी मस्तिष्क ने अपना तर्क रख ही दिया. “दर्द से ध्यान हटाने के लिए ही तो हर कोई अपने को मोबाइल में व्यस्त किए हुए है.”
“मतलब?”
“अब देखिए न अंकल, थेरेपी में थोड़ा-बहुत दर्द तो होता ही है. ध्यान गानों में, संदेश भेजने-पढ़ने में, फोटोज़ देखने में लगा रहेगा तो दर्द की अनुभूति कम होगी. मैंने इसीलिए तो पिंटू को हेडफोन लगा दिया है. ख़ुद मैं भी अपना मोबाइल ही चेक करने जा रही थी...”
“कि मैंने तुम्हें बातों में लगाकर तुम्हारा टाइम ख़राब कर दिया.” अंकल ने मेरी बात झटके से समाप्त करते हुए दूसरी ओर मुंह फेर लिया. शायद मैंने उन्हें नाराज़ कर दिया था.
“आह!” उनके मुंह से कराह निकली.
“देखिए, आपका ध्यान दर्द पर गया और दर्द महसूस होने लगा. इतनी देर मुझसे बातें करते हुए आपको दर्द का एहसास ही नहीं हो रहा था. बात स़िर्फ ख़ुद को व्यस्त रखकर दर्द से ध्यान बंटाने की है. देखिए, आपसे बातों-बातों में पिंटू की एक्सरसाइज़ पूरी भी हो गई. न उसे कुछ पता चला, न मुझे, वरना वो यदि दर्द से परेशान होता रहता, तो उसे तड़पता देख मैं दुखी होती रहती.”
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केयरटेकर ने आकर अंकल की मशीन हटाई, तो उनके मुंह से निकल गया, “अरे, हो भी गई. आज तो पता ही नहीं चला.”
केयरटेकर सहित मेरे चेहरे पर भी मुस्कान दौड़ गई. अंकल झेंप गए.
“टेक्नोलॉजी इतनी बुरी भी नहीं है अंकल! हां, अति सर्वत्र वर्जयेत्.”
प्रत्युत्तर में अंकल मुस्कुरा दिए, तो मैं फूलकर कुप्पा हो गई. घर लौटकर मैंने यह बात अपने पति को बताई, तो वे भी मुस्कुराए बिना न रह सके.
“मतलब, वहां भी तुमने अपनी समझदारी का सिक्का जमाना आरंभ कर दिया है. सॉरी नीतू, घर के कामों के साथ-साथ पिंटू को लाने-ले जाने की ज़िम्मेदारी भी तुम्हें संभालनी पड़ रही है. क्या करूं? आजकल ऑफिस में वर्कलोड ज़्यादा होने से लगभग रोज़ ही लौटने में देरी हो जाती है. देखो, शायद अगले महीने थोड़ा फ्री हो जाऊं, तो फिर पिंटू को लाने-ले जाने की ज़िम्मेदारी मैं संभाल लूंगा.”
“अरे नहीं, मुझे कोई परेशानी नहीं है, बल्कि कुछ नया देखने-समझने को मिल रहा है.” मैंने उन्हें अपराधबोध से उबारना चाहा.
“ओहो! तो लेखिका महोदया को यहां भी कहानी का कोई प्लॉट मिल गया लगता है.”
पति ने चुटकी ली, तो मैं मन ही मन इनकी समझ की दाद दिए बिना न रह सकी. वाकई इस एंगल से तो मैंने सोचा ही नहीं था. सेंटर में तो इतने तरह के कैरेक्टर्स मौजूद हैं कि कहानी क्या, पूरा उपन्यास लिखा जा सकता है. मैं अब और भी जोश के साथ पिंटू को सेंटर ले जाने लगी. पर उन अंकल से फिर बातचीत नहीं हो सकी. एक-दो बार आते-जाते आमना-सामना ज़रूर हो गया था, पर हम मुस्कुराकर आगे बढ़ गए थे. उन्हें जाने की जल्दी थी, तो मुझे आने की. इस बीच मेरा जन्मदिन आया, तो पति ने मुझे उपहारस्वरूप किंडल लाकर दिया.
“इसमें तुम कोई भी क़िताब सॉफ्ट कॉपी के रूप में स्टोर कर कहीं भी पढ़ सकती हो. हैंडल करने में बेहद सुविधाजनक.”
स्मार्टफोन, चश्मे के अलावा अब किंडल भी मेरे हैंडबैग की एक आवश्यक एक्सेसरी हो गई थी. सेंटर में मेरा व़क्त और भी आराम से गुज़रने लगा था. पिंटू के घुटने में भी काफ़ी सुधार था. मुझे किंडल पर व्यस्त देख वह मज़ाक करता.
“ममा, आप अपना लैपटॉप भी साथ ले आया करो. यहीं स्टोरी टाइप कर लिया करो.”
“नहीं, इतना भी नहीं.” मैं मुस्कुरा देती. पर्स में किंडल आ जाने के बाद से मेरी आंखें उन अंकल को और भी बेचैनी से तलाशने लगी थीं. शायद मैं उन्हें उन्नत टेक्नोलॉजी का एक और अजूबा दिखाने के लिए बेक़रार हो रही थी. उनसे उस दिन की मुलाक़ात न जाने क्यों मेरे दिल में बस-सी गई थी, आख़िर मेरी मुराद पूरी हो ही गई. उस दिन पिंटू को फिज़ियोथेरेपिस्ट के हवाले कर मैंने किंडल पर अपना अधूरा नॉवल पढ़ना शुरू ही किया था कि एक परिचित स्वर ने मुझे चौंका दिया. देखा तो अंकल थे.
“अंकल, आप कैसे हैं? कितने दिनों बाद फिर से मुलाक़ात हुई है?”
“हां, बीच में कुछ दिन तो मैं आया ही नहीं था. विदेश से बेटी-दामाद आए हुए थे. उनके और नाती-नातिन के संग दिन कब गुज़र जाता था पता ही नहीं चलता था. भगवान का शुक्र है उस समय कंधों में कोई दर्द नहीं हुआ.”
मैं मुस्कुरा दी. “अंकल दर्द तो हुआ होगा, पर आप बेटी और उसके बच्चों में इतने मगन थे कि आपको दर्द का एहसास ही नहीं हुआ.” अंकल हंसने लगे थे. “तुमसे मैं तर्क में नहीं जीत सकता बेटी. अपनी बेटी को भी मैंने तुम्हारे बारे में बताया था. कहने लगी ठीक ही तो कह रही हैं वे. कब से आपसे कह रही हूं कि इस बटनवाले मोबाइल को छोड़कर स्मार्टफोन ले लीजिए. आपका मन लगा रहेगा और हमें भी तसल्ली रहेगी. वह तो ख़ुद लाने पर उतारू थी, पर मैंने ही मना कर दिया. मेरे भला कौन-से ऐसे यार-दोस्त हैं, जिनसे वाट्सएप पर बातें करूंगा. जो दो-चार हैं, वे मेरे जैसे ही हैं, जो या तो ऐसे ही मिल लेते हैं या फोन पर बातें कर लेते हैं. अपना पुराना लैपटॉप वह पिछले साल आई थी, तब यहीं छोड़ गई थी. उस पर स्काइप पर बात कर लेती है. बाकी सुबह-शाम टीवी देख लेता हूं. मोबाइल में जितने ज़्यादा फंक्शन होंगे, मेरे लिए उसे हैंडल करना उतना ही मुश्किल होगा. शरीर संभल जाए वही बहुत है. और पिंटू बेटा कैसा है? ठीक है? यह तुम्हारे हाथ में क्या है?”
“यह किंडल है अंकल!” मैं उत्साहित हो उठी थी. “मेरे हसबैंड ने मुझे बर्थडे पर गिफ्ट किया है. मुझे पढ़ने-लिखने का बहुत शौक़ है न, तो इसलिए.” मैं उत्साह से उन्हें दिखाने लगी, तो आसपास के कुछ और लोग भी उत्सुकतावश जुट आए.
“यह देखिए. यह मैंने इसमें कुछ क़िताबें मंगवाई हैं. अब ये इसमें सॉफ्ट कॉपी के रूप में उपलब्ध हो गई हैं. मेरा जब जहां मन चाहे खोलकर पढ़ने लग जाती हूं मोबाइल की तरह. यह भी बैटरी से चार्ज होता है. मेरी अपनी लिखी क़िताब भी सॉफ्ट कॉपी के रूप में इसमें उपलब्ध है. आप कभी पढ़ना चाहें तो!”
“वाह, क्या टेक्नोलॉजी है!” आसपास के लोग सराहना करते धीरे-धीरे छितरने लगे, तो मेरा ध्यान अंकल की ओर गया. अंकल किसी गहरी सोच में डूबे हुए थे.
“क्या हुआ अंकल?”
“अं... कुछ नहीं. मैंने तुम्हें बताया था न कि बेटी ने स्मार्टफोन दिलवाने की बात कही थी और मैंने इंकार कर दिया था. तब वह यही, जो तुम्हारे हाथ में है- किंडल, यह भेजने की ज़िद करने लगी. दरअसल, उसने मुझे उसकी मां की डायरी पढ़ते देख लिया था.”
“आपकी पत्नी डायरी लिखती हैं?” मैंने बीच में ही बात काटते हुए प्रश्‍न कर डाला था.“लिखती है नहीं, लिखती थी? दो वर्ष पूर्व वह गुज़र गई.”
“ओह, आई एम सॉरी!”
अंकल, शायद किसी और ही दुनिया में चले गए थे, क्योंकि मेरी प्रतिक्रिया पर भी वे निर्लिप्त बने रहे और पत्नी की स्मृतियों में खोए रहे.
“उसके जीते जी तो कभी उसकी डायरी पढ़ने की आवश्यकता महसूस ही नहीं हुई. बहुत जीवंत व्यक्तित्व की स्वामिनी थी तुम्हारी आंटी. बेहद हंसमुख, बेहद मिलनसार, बेहद धार्मिक... हर किसी को अपना बना लेने का जादू आता था उसे. मैं ज़रा अंतर्मुखी हूं, लेकिन वो हर व़क्त बोलती रहती थी. पर कैंसर के आगे उसकी भी बोलती बंद हो गई.”
“क्या? कैंसर था उन्हें?”
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“ख़ूब लंबा इलाज चला. अपनी जिजीविषा के सहारे वो लंबे समय तक उस भयावह बीमारी से संघर्ष करती रही, पर अंत में थक-हारकर उसने घुटने टेक दिए. उसके दिन-प्रतिदिन टूटने का सफ़र याद करता हूं, तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. तुम उस दिन फिज़ियोथेरेपी के दर्द के व़क्त ध्यान दूसरी ओर लगाने की बात कर रही थी न? तुम्हारी आंटी के कीमोथेरेपी के दर्द के सम्मुख यह दर्द कुछ भी नहीं है. मैं तो उस व़क्त आंखें बंद कर बस उसका ध्यान कर लेता हूं. उसका हंसता-मुस्कुराता जीवंत चेहरा मेरी स्मृति में तैर जाता है और मैं सब भूलकर किसी और ही दुनिया में पहुंच जाता हूं.”
अंकल को भावुक होते देख मैंने उनका ध्यान बंटाना चाहा. “आप उनकी डायरी के बारे में बता रहे थे.”
“हां, उसके जाने के बाद मैंने एक दिन वैसे ही उसकी डायरी खोलकर पढ़ना शुरू किया, तो हैरत से मेरी आंखें चौड़ी हो गई थीं. भावनाओं को इतनी ख़ूबसूरती से शब्दों में पिरोया गया था कि मैं उसकी सशक्त लेखनी की दाद दिए बिना नहीं रह सका. किसी कवयित्री की कविता से कम नहीं है उसकी डायरी. एक-एक शब्द जितनी शिद्दत से काग़ज़ पर उकेरा गया था, पढ़ते व़क्त उतनी ही गहराई से दिल में उतरता चला जाता है. जाने कितनी बार पढ़ चुका हूं, पर मन ही नहीं भरता. दिन में एक बार उसके पन्ने न पलट लूं, तब तक मन को शांति नहीं मिलती. बेटी परिवार सहित आई हुई थी, फिर भी मैं आंख बचाकर, मौक़ा निकालकर एक बार तो डायरी के पन्ने पलट ही लेता था और रवाना होने से एक दिन पहले बस बेटी ने यही देख लिया. मां की डायरी देख, पढ़कर पहले तो वह भी ख़ूब रोई. फिर बोली, “ठीक है पापा, मान लिया स्मार्टफोन आपके काम का नहीं. अब मैं आपके लिए किंडल भेजूंगी. उसमें आप न केवल मम्मी की डायरी, वरन और भी बहुत सारी क़िताबें पढ़ सकेंगे. देखिए, मम्मी की डायरी की क्या हालत हो गई है. एक-एक पन्ना छितरा पड़ा है.”
“वो तो बेटी मैं रोज़ देखता हूं न तो इसलिए...” मैंने सफ़ाई दी थी.
“पर किंडल में यह समस्या नहीं होगी, चाहे आप दिन में 20 बार पढ़ें.”
“हां, बिल्कुल. यह देखिए न आप.” मैंने अपना किंडल उनके हाथ में पकड़ा दिया. वे कुछ देर उसे देखते-परखते रहे. फिर लौटा दिया.
“लेकिन बेटी इसमें वो डायरीवाली बात कहां? उस डायरी के पन्नों के बीच तो मेरे द्वारा तुम्हारी आंटी को दिए सूखे गुलाब हैं. जगह-जगह हल्दी-तेल के निशान हैं. आंसुओं से धुंधलाए अक्षर हैं. उसके पन्नों पर हाथ फेरता हूं, तो लगता है तुम्हारी आंटी को ही स्पर्श कर रहा हूं.”
मैं स्तब्ध खड़ी रह गई थी. मेरा बुद्धिजीवी तार्किक मस्तिष्क संज्ञाशून्य हो गया था. तकनीक और विज्ञान हमें चांद-सूरज पर पहुंचा सकता है, पर किसी के दिल तक पहुंचने के लिए तो एक संवेदनशील दिल ही चाहिए. तभी तो कहा गया है ‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि’. शायद इसीलिए अंकल से रू-ब-रू वार्तालाप से मुझे जितना सुकून मिलता है, उतना वाट्सऐप पर पिंटू के लिए मिले गेट वेल सून मैसेजेस से नहीं.
   संगीता माथुर
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raghav-shivang · 4 years
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खिड़की से देखते हुए लग रहा था मानो पेड़ बेतहाशा दौड़े जा रहे हैं, मगर मंज़िल कहां है, पता नहीं। मेरी ज़िंदगी भी कुछ ऐसी ही है, एक दौड़ है जिसमें मैं भागे जा रहा हूं। भागना कितना आसान है न! जब कुछ समझ नहीं आए तो भाग जाओ। पर तब कहां जाए इंसान, जब ख़ुद से भागना ही ज़रूरी हो। पिछले पांच सालों में ये मेरा तीसरा ट्रांसफ़र है। बस भाग रही है ज़िंदगी और भाग रहा हूं मैं- ख़ुद से, अपनी उन यादों से।
सोचते-सोचते तृष्णा का चेहरा दिमाग़ में आया और एक बार फिर से मैंने आंखें बंद कर लीं। ‘सर, ओ सर, आपका स्टॉपेज आ गया। सो गए क्या?’ कंडक्टर ने झकझोरा तो मैं अपने ख़्यालों से बाहर आया। अपना सामान उतारकर मैं अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। आजकल मुझे ये नए शहर अजनबी-से नहीं लगते, क्योंकि मैंने अपनों को अजनबी होते देखा है।
‘अच्छा, तो तुम हो शिवम?’ मेरी मकान मालकिन ने ऊपर की मंज़िल की चाबी मुझे थमाते हुए कहा। ‘लंबी दूरी से आए हो, थक गए होगे। चाय पीकर जाओ।’ उन्होंने कहा।
‘नहीं, धन्यवाद।’ और मैं अपनी औपचारिकता वाली मुस्कान देकर चला आया। कितनी अजीब है ये दुनिया, यहां मुखौटे लगाकर घूमना ही पड़ता है, नक़ली हंसी, नक़ली चेहरा और नक़ली प्यार। एक बार न चाहते हुए तृष्णा फिर से याद आ गई। नए घर को सहेजने में शाम हो गई। जब भूख का एहसास हुआ तो नीचे चला गया। सोचा कि आसपास दुकान होगी ही। नीचे कुछ ही दूरी पर एक किराने की दुकान थी, एक लड़की दुकानदार से बहस कर रही थी।
‘अरे भैया, ये तो अच्छी लूट है! इस पर एमआरपी 50 रुपए लिखा है और आंटी जी से आप 60 रुपए ले रहे हो!’ वह बोल रही थी।
‘फ्रिज में रखा है, ठंडा भी तो है। उसके भी तो पैसे लगेंगे।’ दुकानदार ने कहा तो वह बोली, ‘अच्छा अंकल, ये कब से हो गया? ठंडा करने के भी चार्ज करने लगे? अभी बताती हूं, कंज़्यूमर कोर्ट वाले पहचान वाले हैं मेरे, उन्हें फोन लगाती हूं।’
‘अच्छा बिटिया, रहने दो। लो बहन जी आप 50 में ही लो।’ दुकानदार की यह बात सुनकर वो ऐसे मुस्कुराई मानो कोई जंग जीत ली हो उसने। ‘क्या चाहिए?’ दुकानदार ने मेरी तरफ़ देखते हुए पूछा।
‘एक नूडल्स का पैकेट दे दो,’ मैंने कहा तो वह लड़की मेरी तरफ़ देखकर बोली, ‘सुनो, इन्हें एमआरपी देखकर ही देना। पता नहीं ये न कह दें कि दुकान में रखा है तो उसका भी चार्ज लगाएंगे।’ ये कहकर वो मुस्कराती हुई चली गई। अगले दिन में पार्क में टहल रहा था कि किसी ने पीछे से कंधे पर थपथपाया। ये तो वही लड़की थी। ‘तो एमआरपी पर लिया कि ज़्यादा पैसे दिए?’ उसने पूछा।
लोगों से मैं तब ही बात करता हूं, जब मुझे ज़रूरत लगे। एक दूरी बनाना पसंद है मुझे, या यूं कहूं कि मुझे ये रिश्ते नापसंद हैं। ‘एमआरपी पर,’ ये कहकर मैंने अपने क़दम तेज़ कर लिए ताकि उसे पीछे छोड़ सकूं। रविवार का दिन था, सुबह-सुबह हल्की बारिश थी। कॉफ़ी का मग लिए मैं खिड़की पर बैठ गया।
बाहर देखा तो फिर से वही लड़की दिखी। बच्चों के साथ पानी की नाव बनाकर खिलखिला रही थी। न जाने क्यों रश्क़-सा हो गया मुझे। कुछ लोग कितने ख़ुशनसीब होते हैं न, जिनकी ज़िंदगी में कोई दुख नहीं होता। मैं भी क्यों उस जैसा नहीं हूं जो पानी में काग़ज़ की नाव चलाकर भी ख़ुश हो ले।
बारिश मुझे भी कितनी पसंद थी और तृष्णा को भी... वह फिर से याद आ गई। न जाने क्यों कॉफ़ी का स्वाद कसैला हो गया और मैं वहां से हट गया। अगले दिन मेरे नए ऑफिस का पहला दिन था। मैं अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि मेरे सामने वाली सीट पर बैठी वो मुस्करा रही थी।
‘सो, इंट्स योर फर्स्ट डे! बाय द वे, आई एम अनाहिता। लगता है तुम पीछा कर रहे हो मेरा। पहले मेरी ही सोसाइटी में, फिर गार्डन में और अब सेम ऑफिस... कल खिड़की से मुझे ही देख रहे थे।’ उसने मुस्कुराकर कहा।
‘न... नहीं तो।’ मैंने अचकचाते हुए कहा तो वह हंस पड़ी। ‘किडिंग यार, रिलैक्स,’ उसने कहा और चली गई।
लंच टाइम में भी वह मेरे पास आकर खड़ी हो गई। उसका बार-बार आना मुझे पसंद नहीं आ रहा था, अपने अकेलेपन में ख़लल मुझे पसंद नहीं। वह कुछ बोल रही थी और मैं टेबल से उठ खड़ा हुआ। मैं जानता था कि जो मैं कर रहा हूं वो सही नहीं, न ही सभ्यता है, पर ऐसा ही हूं मैं।
अगले दिन वह पार्क में दिखी, मुस्कराई भी मगर मेरे चेहरे पर सन्नाटा ही पसरा रहा। जब भी वह मुझे अपनी सोसाइटी में या पार्क के आसपास दिखती, लोगों से घुलती-मिलती ही दिखती। बच्चे तो उसके आगे-पीछे घूमते थे। ऑफिस में भी सबकी चहेती थी अनाहिता।
तृष्णा... वह भी तो ऐसी ही थी, हंसमुख और सबकी चहेती। सब कहते थे कि मैं बहुत क़िस्मतवाला हूं। क़िस्मतवाला...!! ‘तृष्णा’- ये नाम मेरा सुख-चैन सब ले गया। मेरा सिर घूमने लगा मानो सब कुछ तहस-नहस हो जाएगा। मैंने अपना सिर टेबल पर रख दिया। ‘शिवम, आर यू ऑल राइट?’ पास बैठे कलीग ने पूछा तो मैंने कहा कि बस माइग्रेन की वजह से है।
अनाहिता ने शायद सुन लिया था, एक गोली और पानी की बोतल पकड़ाते हुए कहने लगी, ‘ले लो, आराम मिलेगा। और हां, जितना सोचोगे, दर्द उतना ही बढ़ेगा।’ मैंने उसकी आंखों में झांका। पहली बार उन आंखों में दर्द की वही लकीर दिखी, जिसे वह न जाने कब से जी रही है। ये दर्द मुझे पहचाना-सा लगा।
‘तृष्णा, ये क्या कह रही हो तुम, मैं प्यार करता हूं तुमसे। तुम जानती हो कि मैं नहीं रह पाऊंगा तुम्हारे बिना, मैं मर जाऊंगा तृष्णा।’ मैं गिड़गिड़ाया था उसके सामने।
‘प्लीज़ शिवम, डोंट डू दिस, नथिंग इज़ वर्किंग। हम दोनों अलग हैं, ज़िंदगी से मेरी चाहतें अलग हैं और तुम्हारी अलग। मैं अब इस रिलेशनशिप को और आगे नहीं ले जाना चाहती। मैं और समीर एक-दूसरे के साथ ख़ुश हैं। ट्राई टु अंडरस्टैंड।’
समीर मेरा बॉस, तृष्णा मेरा प्यार। सब कुछ अच्छा था मेरी ज़िंदगी में। फिर न जाने कब ये हो गया।
तृष्णा चली गई। पांच सालों का वह साथ, जीने-मरने की क़समें, वफ़ाओं की वो बातें, सब झूठ था। आज जब उसे मुझसे बेहतर, उसकी हर इच्छा को पूरा करने वाला मिल गया, वह चली गई मुझे छोड़कर, मेरे प्यार को दुत्कार कर। कुछ टूट गया, कुछ चटक गया है मेरे अंदर। और तब से आज तक मैं भाग रहा हूं।
बादल घिर आए थे। बारिश हो रही थी और शाम भी हो गई। सब ऑफिस से आज पहले ही निकल गए थे। बाहर अनाहिता दिख गई। वह थोड़ी परेशान लग रही थी। मैंने उसे अनदेखा करते हुए अपनी बाइक आगे बढ़ा ली, मगर कुछ सोचकर वापस आ गया।
‘क्या हुआ?’ मैंने पूछा। ‘आई विल मैनेज, तुम जाओ। घर जा रहे थे न?’ उसने अनमने ढंग से ���हा।
‘बताओ? सॉरी, मैं थोड़ा अपनी धुन में था।’ शायद उसने मुझे जाते देख लिया था। मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। ‘वो कैब नहीं आ रही और रात भी होने को है।’ अनाहिता ने कहा।
‘चलो, बैठो, मैं छोड़ देता हूं।’ मैंने कहा। ‘आर यू श्योर?’ उसके चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान थी और वह बाइक पर बैठ गई।
कुछ तो अलग था इस लड़की में। जितना हंसती है उतना ही गहरा दर्द है उसकी आंखों में। ये दर्द जो सहन करता है, जो महसूस करता है, वही समझ सकता है। हर मुस्कराहट के पीछे ख़ुशी ही हो ये ज़रूरी तो नहीं। कल रात काफ़ी बारिश हुई थी, इसीलिए सुबह मौसम बहुत सुहावना था। मैं पार्क में टहलने के लिए निकल गया।
मैं राउंड लगा ही रहा था कि अचानक से मुझे अनाहिता के चिल्लाने की आवाज़ आई। शायद फिसल गई थी। मैंने उसे सहारा दिया और हॉस्पिटल लेकर पहुंचा। ‘देखिए फ्रैक्चर हुआ है, प्लास्टर चढ़वाना है और चलना-फिरना बिल्कुल बंद। सुनिए मिस्टर, अपनी वाइफ़ का ख़्याल रखिएगा, इन्हें थोड़े दिन कंप्लीट रेस्ट करना है।’ डॉक्टर ने दवाई की पर्ची पकड़ाते हुए कहा।
‘शी इज़ नॉट माय वाइफ़!’ ‘ही इज़ नॉट माय हस्बैंड’
हम दोनों साथ में ही बोले, डॉक्टर मुस्करा दिया। अनाहिता कराह रही थी, मैंने उससे पूछा, ‘सुनो, तुम्हारे घर पर फोन कर देता हूं, तुम्हारी देखभाल के लिए कोई आ जाएगा।’
‘मैं अनाथ हूं, मेरा कोई नहीं है। जिसने जन्म दिया, उसने बचपन में ही कूड़े के ढेर पर फेंक दिया। अनाथालय में बड़ी हुई। और जब बड़ी हुई तो इस जिस्म के लिए गिद्धों ने मुझे नोचने की क़वायद शुरू कर दी। किसी तरह से उनके चंगुल से भाग निकली और तब से आज तक भाग ही रही हूं, एक जगह से दूसरी जगह, जैसे तुम...!! भाग रहे हो न?’
अनाहिता ने मेरी नज़रों में झांकते हुए कहा। मेरा दिल धक् से रह गया, ये लड़की जो पूरा दिन पटर-पटर करती है, जिसकी बातें लोगों को हंसाती रहती हैं, अपने अंदर इतना गहरा घाव लेकर घूम रही है! मुझे आज अपना दर्द छोटा लग रहा था।
मैं अनाहिता को घर ले आया। उसकी दवाइयां सिरहाने रखीं और उससे पूछा, ‘सुनो, तुम्हें भूख लगी है?’ ‘हां, मैं नूडल्स खाऊंगी, बनाने आते हैं तुम्हें। मुझे पता है।’ उसने जिस अंदाज़ में कहा, मुझे हंसी आ गई। थोड़ी देर में मैं नूडल्स की दो प्लेटें लेकर उसके सामने था।
अचानक कुछ टकराने की ज़ोर की आवाज़ आई। खिड़की खुली थी, मैं खिड़की बंद करने गया। बारिश फिर से शुरू हो गई थी। अचानक कुछ याद आ गया, मैंने जेब से पर्स निकाला, उसमें तृष्णा की तस्वीर थी। मैं मुस्कराया और तस्वीर के टुकड़े करके खिड़की से बाहर फेंक दिए। ‘क्या कर रहे थे खिड़की पर?’ अनाहिता ने पूछा।
‘कुछ नहीं, अतीत की खुरचन कुछ बाक़ी थी, आज उसे झाड़ दिया।’ मेरे होंठों पर मुस्कान थी।
‘अच्छा मैं चलता हूं।’ मैंने उसे कहा और सीढ़ियों से उतरने लगा। अचानक कुछ याद आया और मैं फिर से ऊपर चला गया। अनाहिता मुझे लौटता देख हैरान थी।
‘सुनो अनाहिता... तुम सही थीं! और हां, कुछ ज़रूरत हो तो मुझे बुला लेना, अब मैंने भागना छोड़ दिया है, सोच रहा हूं कि अब थोड़ा थम जाऊं।’ और वह फिर मुस्करा दी।
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raghav-shivang · 4 years
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खिड़की से देखते हुए लग रहा था मानो पेड़ बेतहाशा दौड़े जा रहे हैं, मगर मंज़िल कहां है, पता नहीं। मेरी ज़िंदगी भी कुछ ऐसी ही है, एक दौड़ है जिसमें मैं भागे जा रहा हूं। भागना कितना आसान है न! जब कुछ समझ नहीं आए तो भाग जाओ। पर तब कहां जाए इंसान, जब ख़ुद से भागना ही ज़रूरी हो। पिछले पांच सालों में ये मेरा तीसरा ट्रांसफ़र है। बस भाग रही है ज़िंदगी और भाग रहा हूं मैं- ख़ुद से, अपनी उन यादों से।
सोचते-सोचते तृष्णा का चेहरा दिमाग़ में आया और एक बार फिर से मैंने आंखें बंद कर लीं। ‘सर, ओ सर, आपका स्टॉपेज आ गया। सो गए क्या?’ कंडक्टर ने झकझोरा तो मैं अपने ख़्यालों से बाहर आया। अपना सामान उतारकर मैं अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। आजकल मुझे ये नए शहर अजनबी-से नहीं लगते, क्योंकि मैंने अपनों को अजनबी होते देखा है।
‘अच्छा, तो तुम हो शिवम?’ मेरी मकान मालकिन ने ऊपर की मंज़िल की चाबी मुझे थमाते हुए कहा। ‘लंबी दूरी से आए हो, थक गए होगे। चाय पीकर जाओ।’ उन्होंने कहा।
‘नहीं, धन्यवाद।’ और मैं अपनी औपचारिकता वाली मुस्कान देकर चला आया। कितनी अजीब है ये दुनिया, यहां मुखौटे लगाकर घूमना ही पड़ता है, नक़ली हंसी, नक़ली चेहरा और नक़ली प्यार। एक बार न चाहते हुए तृष्णा फिर से याद आ गई। नए घर को सहेजने में शाम हो गई। जब भूख का एहसास हुआ तो नीचे चला गया। सोचा कि आसपास दुकान होगी ही। नीचे कुछ ही दूरी पर एक किराने की दुकान थी, एक लड़की दुकानदार से बहस कर रही थी।
‘अरे भैया, ये तो अच्छी लूट है! इस पर एमआरपी 50 रुपए लिखा है और आंटी जी से आप 60 रुपए ले रहे हो!’ वह बोल रही थी।
‘फ्रिज में रखा है, ठंडा भी तो है। उसके भी तो पैसे लगेंगे।’ दुकानदार ने कहा तो वह बोली, ‘अच्छा अंकल, ये कब से हो गया? ठंडा करने के भी चार्ज करने लगे? अभी बताती हूं, कंज़्यूमर कोर्ट वाले पहचान वाले हैं मेरे, उन्हें फोन लगाती हूं।’
‘अच्छा बिटिया, रहने दो। लो बहन जी आप 50 में ही लो।’ दुकानदार की यह बात सुनकर वो ऐसे मुस्कुराई मानो कोई जंग जीत ली हो उसने। ‘क्या चाहिए?’ दुकानदार ने मेरी तरफ़ देखते हुए पूछा।
‘एक नूडल्स का पैकेट दे दो,’ मैंने कहा तो वह लड़की मेरी तरफ़ देखकर बोली, ‘सुनो, इन्हें एमआरपी देखकर ही देना। पता नहीं ये न कह दें कि दुकान में रखा है तो उसका भी चार्ज लगाएंगे।’ ये कहकर वो मुस्कराती हुई चली गई। अगले दिन में पार्क में टहल रहा था कि किसी ने पीछे से कंधे पर थपथपाया। ये तो वही लड़की थी। ‘तो एमआरपी पर लिया कि ज़्यादा पैसे दिए?’ उसने पूछा।
लोगों से मैं तब ही बात करता हूं, जब मुझे ज़रूरत लगे। एक दूरी बनाना पसंद है मुझे, या यूं कहूं कि मुझे ये रिश्ते नापसंद हैं। ‘एमआरपी पर,’ ये कहकर मैंने अपने क़दम तेज़ कर लिए ताकि उसे पीछे छोड़ सकूं। रविवार का दिन था, सुबह-सुबह हल्की बारिश थी। कॉफ़ी का मग लिए मैं खिड़की पर बैठ गया।
बाहर देखा तो फिर से वही लड़की दिखी। बच्चों के साथ पानी की नाव बनाकर खिलखिला रही थी। न जाने क्यों रश्क़-सा हो गया मुझे। कुछ लोग कितने ख़ुशनसीब होते हैं न, जिनकी ज़िंदगी में कोई दुख नहीं होता। मैं भी क्यों उस जैसा नहीं हूं जो पानी में काग़ज़ की नाव चलाकर भी ख़ुश हो ले।
बारिश मुझे भी कितनी पसंद थी और तृष्णा को भी... वह फिर से याद आ गई। न जाने क्यों कॉफ़ी का स्वाद कसैला हो गया और मैं वहां से हट गया। अगले दिन मेरे नए ऑफिस का पहला दिन था। मैं अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि मेरे सामने वाली सीट पर बैठी वो मुस्करा रही थी।
‘सो, इंट्स योर फर्स्ट डे! बाय द वे, आई एम अनाहिता। लगता है तुम पीछा कर रहे हो मेरा। पहले मेरी ही सोसाइटी में, फिर गार्डन में और अब सेम ऑफिस... कल खिड़की से मुझे ही देख रहे थे।’ उसने मुस्कुराकर कहा।
‘न... नहीं तो।’ मैंने अचकचाते हुए कहा तो वह हंस पड़ी। ‘किडिंग यार, रिलैक्स,’ उसने कहा और चली गई।
लंच टाइम में भी वह मेरे पास आकर खड़ी हो गई। उसका बार-बार आना मुझे पसंद नहीं आ रहा था, अपने अकेलेपन में ख़लल मुझे पसंद नहीं। वह कुछ बोल रही थी और मैं टेबल से उठ खड़ा हुआ। मैं जानता था कि जो मैं कर रहा हूं वो सही नहीं, न ही सभ्यता है, पर ऐसा ही हूं मैं।
अगले दिन वह पार्क में दिखी, मुस्कराई भी मगर मेरे चेहरे पर सन्नाटा ही पसरा रहा। जब भी वह मुझे अपनी सोसाइटी में या पार्क के आसपास दिखती, लोगों से घुलती-मिलती ही दिखती। बच्चे तो उसके आगे-पीछे घूमते थे। ऑफिस में भी सबकी चहेती थी अनाहिता।
तृष्णा... वह भी तो ऐसी ही थी, हंसमुख और सबकी चहेती। सब कहते थे कि मैं बहुत क़िस्मतवाला हूं। क़िस्मतवाला...!! ‘तृष्णा’- ये नाम मेरा सुख-चैन सब ले गया। मेरा सिर घूमने लगा मानो सब कुछ तहस-नहस हो जाएगा। मैंने अपना सिर टेबल पर रख दिया। ‘शिवम, आर यू ऑल राइट?’ पास बैठे कलीग ने पूछा तो मैंने कहा कि बस माइग्रेन की वजह से है।
अनाहिता ने शायद सुन लिया था, एक गोली और पानी की बोतल पकड़ाते हुए कहने लगी, ‘ले लो, आराम मिलेगा। और हां, जितना सोचोगे, दर्द उतना ही बढ़ेगा।’ मैंने उसकी आंखों में झांका। पहली बार उन आंखों में दर्द की वही लकीर दिखी, जिसे वह न जाने कब से जी रही है। ये दर्द मुझे पहचाना-सा लगा।
‘तृष्णा, ये क्या कह रही हो तुम, मैं प्यार करता हूं तुमसे। तुम जानती हो कि मैं नहीं रह पाऊंगा तुम्हारे बिना, मैं मर जाऊंगा तृष्णा।’ मैं गिड़गिड़ाया था उसके सामने।
‘प्लीज़ शिवम, डोंट डू दिस, नथिंग इज़ वर्किंग। हम दोनों अलग हैं, ज़िंदगी से मेरी चाहतें अलग हैं और तुम्हारी अलग। मैं अब इस रिलेशनशिप को और आगे नहीं ले जाना चाहती। मैं और समीर एक-दूसरे के साथ ख़ुश हैं। ट्राई टु अंडरस्टैंड।’
समीर मेरा बॉस, तृष्णा मेरा प्यार। सब कुछ अच्छा था मेरी ज़िंदगी में। फिर न जाने कब ये हो गया।
तृष्णा चली गई। पांच सालों का वह साथ, जीने-मरने की क़समें, वफ़ाओं की वो बातें, सब झूठ था। आज जब उसे मुझसे बेहतर, उसकी हर इच्छा को पूरा करने वाला मिल गया, वह चली गई मुझे छोड़कर, मेरे प्यार को दुत्कार कर। कुछ टूट गया, कुछ चटक गया है मेरे अंदर। और तब से आज तक मैं भाग रहा हूं।
बादल घिर आए थे। बारिश हो रही थी और शाम भी हो गई। सब ऑफिस से आज पहले ही निकल गए थे। बाहर अनाहिता दिख गई। वह थोड़ी परेशान लग रही थी। मैंने उसे अनदेखा करते हुए अपनी बाइक आगे बढ़ा ली, मगर कुछ सोचकर वापस आ गया।
‘क्या हुआ?’ मैंने पूछा। ‘आई विल मैनेज, तुम जाओ। घर जा रहे थे न?’ उसने अनमने ढंग से कहा।
‘बताओ? सॉरी, मैं थोड़ा अपनी धुन में था।’ शायद उसने मुझे जाते देख लिया था। मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। ‘वो कैब नहीं आ रही और रात भी होने को है।’ अनाहिता ने कहा।
‘चलो, बैठो, मैं छोड़ देता हूं।’ मैंने कहा। ‘आर यू श्योर?’ उसके चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान थी और वह बाइक पर बैठ गई।
कुछ तो अलग था इस लड़की में। जितना हंसती है उतना ही गहरा दर्द है उसकी आंखों में। ये दर्द जो सहन करता है, जो महसूस करता है, वही समझ सकता है। हर मुस्कराहट के पीछे ख़ुशी ही हो ये ज़रूरी तो नहीं। कल रात काफ़ी बारिश हुई थी, इसीलिए सुबह मौसम बहुत सुहावना था। मैं पार्क में टहलने के लिए निकल गया।
मैं राउंड लगा ही रहा था कि अचानक से मुझे अनाहिता के चिल्लाने की आवाज़ आई। शायद फिसल गई थी। मैंने उसे सहारा दिया और हॉस्पिटल लेकर पहुंचा। ‘देखिए फ्रैक्चर हुआ है, प्लास्टर चढ़वाना है और चलना-फिरना बिल्कुल बंद। सुनिए मिस्टर, अपनी वाइफ़ का ख़्याल रखिएगा, इन्हें थोड़े दिन कंप्लीट रेस्ट करना है।’ डॉक्टर ने दवाई की पर्ची पकड़ाते हुए कहा।
‘शी इज़ नॉट माय वाइफ़!’ ‘ही इज़ नॉट माय हस्बैंड’
हम दोनों साथ में ही बोले, डॉक्टर मुस्करा दिया। अनाहिता कराह रही थी, मैंने उससे पूछा, ‘सुनो, तुम्हारे घर पर फोन कर देता हूं, तुम्हारी देखभाल के लिए कोई आ जाएगा।’
‘मैं अनाथ हूं, मेरा कोई नहीं है। जिसने जन्म दिया, उसने बचपन में ही कूड़े के ढेर पर फेंक दिया। अनाथालय में बड़ी हुई। और जब बड़ी हुई तो इस जिस्म के लिए गिद्धों ने मुझे नोचने की क़वायद शुरू कर दी। किसी तरह से उनके चंगुल से भाग निकली और तब से आज तक भाग ही रही हूं, एक जगह से दूसरी जगह, जैसे तुम...!! भाग रहे हो न?’
अनाहिता ने मेरी नज़रों में झांकते हुए कहा। मेरा दिल धक् से रह गया, ये लड़की जो पूरा दिन पटर-पटर करती है, जिसकी बातें लोगों को हंसाती रहती हैं, अपने अंदर इतना गहरा घाव लेकर घूम रही है! मुझे आज अपना दर्द छोटा लग रहा था।
मैं अनाहिता को घर ले आया। उसकी दवाइयां सिरहाने रखीं और उससे पूछा, ‘सुनो, तुम्हें भूख लगी है?’ ‘हां, मैं नूडल्स खाऊंगी, बनाने आते हैं तुम्हें। मुझे पता है।’ उसने जिस अंदाज़ में कहा, मुझे हंसी आ गई। थोड़ी देर में मैं नूडल्स की दो प्लेटें लेकर उसके सामने था।
अचानक कुछ टकराने की ज़ोर की आवाज़ आई। खिड़की खुली थी, मैं खिड़की बंद करने गया। बारिश फिर से शुरू हो गई थी। अचानक कुछ याद आ गया, मैंने जेब से पर्स निकाला, उसमें तृष्णा की तस्वीर थी। मैं मुस्कराया और तस्वीर के टुकड़े करके खिड़की से बाहर फेंक दिए। ‘क्या कर रहे थे खिड़की पर?’ अनाहिता ने पूछा।
‘कुछ नहीं, अतीत की खुरचन कुछ बाक़ी थी, आज उसे झाड़ दिया।’ मेरे होंठों पर मुस्कान थी।
‘अच्छा मैं चलता हूं।’ मैंने उसे कहा और सीढ़ियों से उतरने लगा। अचानक कुछ याद आया और मैं फिर से ऊपर चला गया। अनाहिता मुझे लौटता देख हैरान थी।
‘सुनो अनाहिता... तुम सही थीं! और हां, कुछ ज़रूरत हो तो मुझे बुला लेना, अब मैंने भागना छोड़ दिया है, सोच रहा हूं कि अब थोड़ा थम जाऊं।’ और वह फिर मुस्करा दी।
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