श्रीकृष्णकालीन मर्हिष वेदव्यास से पूर्व कोई भी शास्त्र पुस्तक के रूप में उपलब्ध नहीं था। श्रुतज्ञान की इस परम्परा को तोड़ते हुए उन्होंने चार वेद, ब्रह्मसूत्र, महाभारत, भागवत एवं गीता-जैसे ग्रन्थों में पूर्वसंचित भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञानराशि ��ो संकलित कर अन्त में स्वयं ही निर्णय दिया कि–
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रसंग्रहै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता।। (म.भा., भीष्मपर्व अ० ४३/१)
गीता भली प्रकार मनन करके हृदय में धारण करने योग्य है, जो पद्मनाभ भगवान के श्रीमुख से नि:सृत वाणी है; फिर अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता? मानव-सृष्टि के आदि में भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीमुख से नि:सृत अविनाशी योग अर्थात् श्रीमद्भगवद्गीता, जिसकी विस्तृत व्याख्या वेद और उपनिषद् हैं, विस्मृति आ जाने पर उसी आदिशास्त्र को भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रति पुन: प्रकाशित किया, जिसकी यथावत् व्याख्या ‘यथार्थ गीता’ है।
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अर्जुन! इस निष्काम कर्मयोग में क्रियात्मिका बुद्धि एक ही है। क्रिया एक है और परिणाम एक ही है। आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति को प्रकृति के द्वन्द्व से शनै:-शनै: अर्जित करना व्यवसाय है। यह व्यवसाय अथवा निश्चयात्मक क्रिया भी एक ही है। तब तो जो लोग बहुत-सी क्रियाएँ बताते हैं, क्या वे भजन नहीं करते? श्रीकृष्ण कहते हैं– ‘‘हाँ, वे भजन नहीं करते। उन पुरुषों की बुद्धि अनन्त शाखाओंवाली होती है, इसलिये अनन्त क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं।’’ - व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।। गीता २/४१।।
आप इस कर्म को समझें और इस पर दो कदम चल भर दें (जो सद्गृहस्थ आश्रम में रहकर ही चला जा सकता है, साधक तो चलते ही हैं।), बीज भर डाल दें, तो अर्जुन! बीज का नाश नहीं होता। प्रकृति में कोई क्षमता नहीं, ऐसा कोई अस्त्र नहीं कि उस सत्य को मिटा दे। प्रकृति केवल आवरण डाल सकती है, कुछ देर कर सकती है; किन्तु साधन के आरम्भ को मिटा नहीं सकती।
ज्ञानयोग में भी वही ‘कर्म’ करना है, जो निष्काम कर्मयोग में किया जाता है। दोनों में केवल बुद्धि का, दृष्टिकोण का अन्तर है। ज्ञानमार्गी अपनी स्थिति समझकर अपने पर निर्भर होकर कर्म करता है, जबकि निष्काम कर्मयोगी इष्ट के आश्रित होकर कर्म करता है। करना दोनों मार्गों में है और वह कर्म भी एक ही है, जिसे दोनों मार्गों में किया जाना है।
दुनिया में लड़ाइयाँ होती हैं। विश्व सिमटकर लड़ता है, प्रत्येक जाति लड़ती है; किन्तु शाश्वत विजय जीतनेवाले को भी नहीं मिलती। ये तो बदले हैं। जो जिसको जितना दबाता है, कालान्तर में उसे भी उतना ही दबना पड़ता है। यह कैसी विजय है, जिसमें इन्द्रियों को सुखानेवाला शोक बना ही रहता है, अन्त में शरीर भी नष्ट हो जाता है? वास्तविक संघर्ष तो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का है, जिसमें एक बार विजय हो जाने पर प्रकृति का सदा के लिये निरोध और परमपुरुष परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। यह ऐसी विजय है, जिसके पीछे हार नहीं है।