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राजस्थानी कला
राजस्थानी कला राजस्थानी स्थापत्य कला 1.मुद्रा कला 2.मूर्ति कला 3.धातु मूर्ति कला 4.चित्रकला 5.धातु एवं काष्ठ कला 6.लोककला इतिहास के साधनों में शिलालेख, पुरालेख और साहित्य के समानान्तर कला भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके द्वारा हमें मानव की मानसिक प्रवृतियों का ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता वरन् निर्मितियों में उनका कौशल भी दिखलाई देता है। यह कौशल तत्कालीन मानव के विज्ञान तथा तकनीक के साथ-साथ समाज, धर्म, आर्थिक और राजनीतिक विषयों का तथ्यात्मक विवरण प्रदान करने में इतिहास का स्रोत बन जाता है। इसमें स्थापत्या, मूर्ति, चित्र, मुद्रा, वस्राभूषण, श्रृंगार-प्रसाधन, घरेलु उपकरण इत्यादि जैसे कई विषय समाहित है जो पुन: विभिन्न भागों में विभक्त किए जा सकते हैं।
Rajasthani Kala Sthapatya Mudra Murti Dhatu ChitraKala Aivam Kashth LokKala Itihas Ke Sadhno Me Shilalekh पुरालेख Aur Sahitya Samanantar Bhi Ek Mahatvapurnn Sthan Rakhti Hai Iske Dwara Hamein Manav Ki Mansik Pravritiyon Ka Gyan Hee Prapt Nahi Hota Varan निर्मितियों Unka Kaushal DikhLayi Deta Yah Tatkaleen Vigyaan Tatha Taknik Sath - Samaj Dharm Aarthik RajNeetik Vishayon Tathyatmak Vivarann Pradan Karne Strot Ban Jata Isme स्थापत्य.
राजस्थानी स्थापत्य कला: राजस्थान में प्राचीन काल से ही हिन्दु, बौद्ध, जैन तथा मध्यकाल से मुस्लिम धर्म के अनुयायियों द्वारा मंदिर, स्तम्भ, मठ, मस्जिद, मकबरे, समाधियों और छतरियों का निर्माण किया जाता रहा है। इनमें कई भग्नावेष के रुप में तथा कुछ सही हालत में अभी भी विद्यमान है। इनमें कला की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन देवालयों के भग्नावशेष हमें चित्तौड़ के उत्तर में नगरी नामक स्थान पर मिलते हैं। प्राप्त अवशेषों में वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्म की तक्षण कला झलकती है। तीसरी सदी ईसा पूर्व से पांचवी शताब्दी तक स्थापत्य की विशेषताओं को बतलाने वाले उपकरणों में देवी-देवताओं, यक्ष-यक्षिणियों की कई मूर्तियां, बौद्ध, स्तूप, विशाल प्रस्तर खण्डों की चाहर दीवारी का एक बाड़ा, 36 फुट और नीचे से 14 फुल चौड़ दीवर कहा जाने वाला "गरुड़ स्तम्भ’ यहां भी देखा जा सकता है। 1567 ई. में अकबर द्वारा चित्तौड़ आक्रमण के समय इस स्तम्भ का उपयोग सैनिक शिविर में प्रकाश करने के लिए किया गया था। गुप्तकाल के पश्चात कालिका मन्दिर के रुप में विद्यमान चित्तौड़ का प्राचीन "सूर्य मन्दिर’ इसी जिले में छोटी सादड़ी का भ्रमरमाता का मन्दिर कोटा में, बाड़ौली का शिव मन्दिर तथा इनमें लगी मूर्तियां तत्कालीन कलाकारों की तक्षण कला के बोध के साथ जन-जीवन की अभिक्रियाओं का संकेत भी प्रदान करती हैं। चित्तौड़ जिले में स्थित मेनाल, डूंगरपुर जिले में अमझेरा, उदयपुर में डबोक के देवालय अवशेषों की शिव, पार्वती, विष्णु, महावीर, भैरव तथा नर्तकियों का शिल्प इनके निर्माण काल के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का क्रमिक इतिहास बतलाता है। सातवीं शताब्दी से राजस्थान की शिल्पकला में राजपूत प्रशासन का प्रभाव हमें शक्ति और भक्ति के विविध पक्षों द्वारा प्राप्त होता है। जयपुर जिले में स्थित आमानेरी का मन्दिर (हर्षमाता का मंदिर), जोधपुर में ओसिया का सच्चियां माता का मन्दिर, जोधपुर संभाग में किराडू का मंदिर, इत्यादि और भिन्न प्रांतों के प्राचीन मंदिर कला के विविध स्वरों की अभिव्यक्ति संलग्न राजस्थान के सांस्कृतिक इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले स्थापत्य के नमूने हैं। उल्लेखित युग में निर्मित चित्तौड़, कुम्भलगढ़, रणथंभोर, गागरोन, अचलगढ़, गढ़ बिरली (अजमेर का तारागढ़) जालोर, जोधपुर आदि के दुर्ग-स्थापत्य कला में राजपूत स्थापत्य शैली के दर्शन होते हैं। सरक्षा प्रेरित शिल्पकला इन दुर्गों की विशेषता कही जा सकती है जिसका प्रभाव इनमें स्थित मन्दिर शिल्प-मूर्ति लक्षण एवं भवन निर्माण में आसानी से परिलक्षित है। तेरहवीं शताब्दी के पश्चात स्थापत्य प्रतीक का अद्वितीय उदाहरण चित्तौड़ का "कीर्ति स्तम्भ’ है, जिसमें उत्कीर्म मूर्तियां जहां हिन्दू धर्म का वृहत संग्रहालय कहा जा सकता है। वहां इसकी एक मंजिल पर खुदे फारसी-लेख से स्पष्ट होता है कि स्थापत्य में मुस्लिम लक्ष्ण का प्रभाव पड़ना शुरु होने लगा था। सत्रहवीं शताब्दी के पश्चात भी परम्परागत आधारों पर मन्दिर बनते रहे जिनमें मूर्ति शिल्प के अतिरिक्त भित्ति चित्रों की नई परम्परा ने प्रवेश किया जिसका अध्ययन राजस्थानी इतिहास के लिए सहयोगकर है।
किला/दुर्ग स्थापत्य
कौटिल्य का कहना है कि राजा को अपने शत्राुओं से सुरक्षा के लिए राज्य की सीमाओं पर दुर्गो का निर्माण करवाना चाहिये । राजस्थान में प्राचीनकाल सेही राजा महाराजा अपने निवास की सुरक्षा के लिए, सामग्री संग्रह के लिए, आक्रमण के समय अपनी प्रजा को सुरक्षित रखने के लिए तथा पशुध्न को बचाने के लिए विभिन्न आकार-प्रकार के दुर्गो का निर्माण करते रहे है। प्राचीन लेखकों, ने दुर्ग को राज्य का अनिवार्य अंग बताया है। शुक्रनीतिसार के अनुसार राज्य के सात अंग माने गए है जिनमें से एक दुर्ग है। इसीलिए किलों की अध्कि संख्या अपने अध्किार में रखना एक गौरव की बात मानी जाती थी । अतःकिलों की स्थापत्य कला राजस्थान में बहुत अध्कि विकसित हुई । शुक्रनीतिसार के अनुसार दुर्ग के नौ भेद बताए गये है- एरण दुर्ग -खाई, तथा पत्थरों से जिनके मार्ग दुर्गम बने हो । पारिख दुर्ग -जो चारों तरपफ बहुत बड़ी खाई से घिरा हो । परिध दुर्ग -जो चारों तरपफ ईट, पत्थर तथा मिट्टी से बने परकोटों से घिरा हो । वन दुर्ग -जो बहुत बड़े-बड़े कांटेदार वृक्षों के समूह द्वारा चारों तरपफ से घिरा हो । धन्व दुर्ग -जो चारों तरपफ बहुत दूर तक मरूभूमि से घिरा हो । जलदुर्ग -जो चारों तरपफ विस्तृत जलराशि से घिरा हो । गिरी दुर्ग -जो किसी एकान्त पहाड़ी पर जल प्रबंध् के साथ हो । सैन्य दुर्ग -व्यूह रचना में चतुर वीरों से व्याप्त होने सेजो अभेध् (आक्रमण द्वारा अजेय) हो । सहाय दुर्ग -जिससें सूर तथा सदा अनुकूल रहने वाले वान्ध्व रहते हो । उपरोक्त सभी दुर्गो में सैन्य दुर्ग सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। राजस्थान के शासकों ने इसी दुर्ग निर्माण परम्परा का पालन किया । लेकिन मध्यकाल में मुस्लिम प्रभाव से दुर्ग स्थापत्य कला में एक नया मोड़ आया । जब ऊँँची-ऊँँची पहा���़ियों के जो ऊपर चौड़ी होती थी और जहाँ खेती और सिंचाई के साध्न हो दुर्ग बनाने के काम मेली जाने लगी और ऐसी पहाड़ियों पर प्राचीन दुर्ग बने हुए थे तो उन्हें पिफर से नया रूप दिया गया। गिरी दुर्गो में चित्तौड़ का किला सबसे प्राचीन तथा सब किलों का सिरमौर है। इसके लिए उक्ति प्रचलित है- गढ़ तो चित्तौड़ गढ़, बाकी बस गढ़ैया, जो इसकी देशव्यापी ख्याति का प्रमाण है। गिरि दुर्गो में कुंभलगढ, रणथम्भौर, सिवाणा, जालौर, अजमेर का तारागढ़ (गढवीटली), जोध्पुर का मेहरानगढ आमेर का जयगढ़ स्थापत्य की दृष्टि से उत्कृष्ट गिरी दुर्ग है। जलदुर्ग की कोटि में गागरोण दुर्ग (झालावाड़) आता है। स्थल (धन्वय) दुर्गो में जैसलमेर का किला प्रमुख है, जिसे सिपर्फ प्रस्तर खण्डों को जोड़कर बनाया गया है। इसमें कहीं भी चूने का प्रयोग नहीं है। जूनागढ़ (बीकानेर) तथा नागौर का किला भी स्थल दुर्गो की कोटि में आते है। जूनागढ़ का किला रेगिस्तान के किलों में श्रेष्ठ है। राजस्थान के समस्त किले बड़े ही सुदृढ़ तथा सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत है और साथ ही स्थापत्य कला की उत्कृष्टता संजोये हुये है।
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किला/दुर्ग स्थापत्य
राजस्थानी स्थापत्य कला की प्रमुख विशेषता
Kila Durg Sthapatya Kautilya Ka Kahna Hai Ki Raja Ko Apne शत्राुओं Se Surakshaa Ke Liye Rajya Borders Par Durgon Nirmann Karwana Chahiye Rajasthan Me Pracheenkal Sehi Maharaja Niwas Samagri Sangrah Aakramann Samay Apni Praja Surakshit Rakhne Tatha पशुध्न Bachane विभिÂ Akaar Prakar Karte Rahe Pracheen Lekhakon ne Anivarya Ang Bataya शुक्रनीतिसार Anusaar Saat Maane Gaye Jinme Ek IsiLiye Kilon अध्कि Sankhya अध्किार Rakhna Gauarav Baa
राजस्थानी स्थापत्य कला की प्रमुख विशेषता:शिल्प- सौष्ठव, अलंकृत पद्धति एवं विषयों की विविधता है ।
यह हिन्दू स्थापत्य कला के रूप में जानी जाती है ।
राजपूतों की वीरता के कारण राजस्थान के स्थापत्य में शौर्य की भावना स्पष्टत: दिखाई देती है ।
मधय काल में जब तुर्की के निरंतर आक्रमण होने लगे तो राजस्थानी स्थापत्य में शौर्य के साथ-साथ सुरक्षा की भावना का भी समावेश किया गया और विशाल एवं सुदृढ़ दुर्ग बनवाने आरम्भ कर दिये गए ।
सुरक्षा की दृष्टि से राजपूत शासकों ने अपने निवास भी दुर्ग के भीतर बनवाये तथा पानी का व्यवस्था के लिये जलाशय खुदवाये ।
राजपूत शासकों की र्धम के प्रति अगाध श्रद्धा ने दुर्ग के भीतर मंदिरों का निर्माण भी करवाया । -
17वीं सदी में मुगलों के सम्पर्क से राजपूत एवं मुस्लिम कला का पारस्परिक मिलन हुआ, जिससे हिन्दू एवं मुस्लिम स्थापत्य शैलियों में समन्वय हुआ ।
दोनों शैलियों के समन्वय से राजस्थानी स्थापत्य का रूप निखर आया ।
प्रमुख विशेषाएँ- 1. प्राचीन स्थापत्य- राजस्थान की स्थापत्य कला बहुत प्राचीन है ।
यहाँ पर काली बंगा में सिन्धु घाटी सभ्यता की स्थापत्य कला के प्रमाण उपलब्ध है ।
इसी प्रकार आहड़ सभ्यता की स्थापत्य कला उदयपुर के पास तथा मौर्यकाल में प्रस्पफुटितसभ्यता के चिन्ह बैराठ में मिले है । -
2. सौष्ठव ।
3. अलंकृत पद्धति ।
4. विषयों की विविधता- इससे यहां के शासकों तथा निवासियों की विचारधारओं, अनुभूतियों और उद्देश्यों की जानकारी प्राप्त होती है ।5. हिन्दु स्थापत्य कला के रूप में- राजस्थान में सबसे प्रमुख स्थापत्य कला राजपूतों की रही है, जिसके कारण सम्पूर्ण राजस्थान किलों मन्दिरों, परकोटों, राजाप्रासादों, जलाशयों उद्योगों, स्तम्भों तथा समाधयिों एवं छतरियों से भर गया है ।
6. शोर्य व सुरक्षाभाव से परिपूर्ण । -
7. हिन्दु व मुस्लिम स्थापत्य का समन्वय- मुगलों के सम्पर्क के पूर्व यहाँ हिन्दू स्थापत्य शैली की प्रधानता रही जिसमें स्तम्भों, सीधे पाटों, ऊंचे शिखरों, अलंकृत आकृतियों, कमल और कलश का महत्व था ।
मुगल काल में राजस्थान की स्थापत्य कला पर मुगलशैली का प्रभाव पड़ा ।
इस शैली कीविशेषताएें थी- नोकदार तिपतिया, मेहराव, मेहरावी डाटदार छतें, इमारतों का इठपहला रूप, गुम्बज, मीनारे आदि ।
दोनों शैलियों के समन्वय से राजस्थानी स्थापत्य का रूप निखरआया ।
हिन्दू कारीगरों ने मुस्लिम आदेशों के अनुरूप जिन भवनों का निर्माण किया हैं उन्हें सुप्रसिद्ध कला विशेषज्ञ पफर्गुसन ने इण्डों-सारसेनिक शैली की संज्ञा दी है । -
Rajasthani Sthapatya Kala Ki Pramukh Visheshta Shilp Saushthav Alankrit Paddhati Aivam Vishayon Vividhata Hai Yah Hindu Ke Roop Me Jani Jati Rajputon Veerta Karan Rajasthan Shaurya Bhawna स्पष्टत Dikhayi Deti मधय Kaal Jab Turkey Nirantar Aakramann Hone Lage To Sath Surakshaa Ka Bhi Samavesh Kiya Gaya Aur Vishal Sudridh Durg Banawane Aarambh Kar Diye Gaye Drishti Se Rajput Shasako ne Apne Niwas Bheetar Banwaye Tatha Pani Vyavastha.
1.मुद्रा कला :राजस्थान के प्राचीन प्रदेश मेवाड़ में मज्झमिका (मध्यमिका) नामधारी चित्तौड़ के पास स्थित नगरी से प्राप्त ताम्रमुद्रा इस क्षेत्र को शिविजनपद घोषित करती है। तत्पश्चात् छठी-सातवीं शताब्दी की स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई। जनरल कनिंघम को आगरा में मेवाड़ के संस्थापक शासक गुहिल के सिक्के प्राप्त हुए तत्पश्चात ऐसे ही सिक्के औझाजी को भी मिले। इसके उर्ध्वपटल तथा अधोवट के चित्रण से मेवाड़ राजवंश के शैवधर्म के प्रति आस्था का पता चलता है। राणा कुम्भाकालीन (1433-1468 ई.) सिक्कों में ताम्र मुद्राएं तथा रजत मुद्रा का उल्लेख जनरल कनिंघम ने किया है। इन पर उत्कीर्ण वि.सं. 1510, 1512, 1523 आदि तिथियों ""श्री कुभंलमेरु महाराणा श्री कुभंकर्णस्य ’ ’ , ""श्री एकलिंगस्य प्रसादात ’ ’ और ""श्री ’ ’ के वाक्यों सहित भाले और डमरु का बिन्दु चिन्ह बना हुआ है। यह सिक्के वर्गाकृति के जिन्हें "टका’ पुकारा जाता था। यह प्रबाव सल्तनत कालीन मुद्रा व्यवस्था को प्रकट करता है जो कि मेवाड़ में राणा सांगा तक प्रचलित रही थी। सांगा के पश्चात शनै: शनै: मुगलकालीन मुद्रा की छाया हमें मेवाड़ और राजस्थान के तत्कालीन अन्यत्र राज्यों में दिखलाई देती है। सांगा कालीन (1509-1528 ई.) प्राप्त तीन मुद्राएं ताम्र तथा तीन पीतल की है। इनके उर्ध्वपटल पर नागरी अभिलेख तथा नागरी अंकों में तिथि तथा अधोपटल पर ""सुल्तान विन सुल्तान ’ ’ का अभिलेख उत्कीर्ण किया हुआ मिलता है। प्रतीक चिन्हों में स्वास्तिक, सूर्य और चन्द्र प्रदर्शित किये गए हैं। इस प्रकार सांगा के उत्तराधिकारियों राणा रत्नसिंह द्वितीय, राणा विक्रमादित्य, बनवीर आदि की मुद्राओं के संलग्न मुगल-मुद्राओं का प्रचलन भी मेवाड में रहा था जो टका, रुप्य आदि कहलाती थी।
परवर्ती काल में आलमशाही, मेहताशाही, चांदोडी, स्वरुपशाही, भूपालशाही, उदयपुरी, चित्तौड़ी, भीलवाड़ी त्रिशूलिया, फींतरा आदि कई मुद्राएं भिन्न-भिन्न समय में प्रचलित रही वहां सामन्तों की मुद्रा में भीण्डरीया पैसा एवं सलूम्बर का ठींगला व पदमशाही नामक ताम्बे का सिक्का जागीर क्षेत्र में चलता था। ब्रिटीश सरकार का "कलदार’ भी व्यापार-वाणिज्य में प्रयुक्त किया जाता रहा था। जोधपुर अथवा मारवाड़ प्रदेश के अन्तर्गत प्राचीनकाल में "पंचमार्क’ मुद्राओं का प्रचलन रहा था। ईसा की दूसरी शताब्दी में यहां बाहर से आए क्षत्रपों की मुद्रा "द्रम’ का प्रचलन हुआ जो लगभग सम्पूर्ण दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में आर्थिक आधार के साधन-रुप में प्रतिष���ठित हो गई। बांसवाड़ा जिले के सरवानियां गांव से 1911 ई. में प्राप्त वीर दामन की मुद्राएं इसका प्रमाण हैं। प्रतिहार तथा चौहान शासकों के सिक्कों के अलावा मारवाड़ में "फदका’ या "फदिया’ मुद्राओं का उल्लेख भी हमें प्राप्त होता है।
राजस्थान के अन्य प��राचीन राज्यों में जो सिक्के प्राप्त होते हैं वह सभी उत्तर मुगलकाल या उसके पश्चात स्थानीय शासकों द्वारा अपने-अपने नाम से प्रचलित कराए हुए मिलते हैं। इनमें जयपुर अथवा ढुंढ़ाड़ प्रदेश में झाड़शाही रामशाही मुहर मुगल बादशाह के के नाम वाले सिक्को में मुम्मदशाही, प्रतापगढ़ के सलीमशाही बांसवाड़ा के लछमनशाही, बून्दी का हाली, कटारशाही, झालावाड़ का मदनशाही, जैसलमैर में अकेशाही व ताम्र मुद्रा - "डोडिया’ अलवर का रावशाही आदि मुख्य कहे जा सकते हैं।
मुद्राओं को ढ़ालने वाली टकसालों तथा उनके ठप्पों का भी अध्ययन अपेक्षित है। इनसे तत्कालीन मुद्रा-विज्ञान पर वृहत प्रकाश डाला जा सकता है। मुद्राओं पर उल्लेखित विवरणों द्वारा हमें सत्ता के क्षेत्र विस्तार, शासकों के तिथिक्रम ही नहीं मिलते वरन् इनसे राजनीतिक व्यवहारों का अध्ययन भी किया जा सकता है।Mudra Kala Rajasthan Ke Pracheen Pradesh Mewad Me Majjhamika Madhyamika naamdhari Chittaud Paas Sthit Nagri Se Prapt ताम्रमुद्रा Is Shetra Ko शिविजनपद Ghosit Karti Hai Tatpaschat Chhathi - 7 th Satabdi Ki Swarna Hui General Kaningham Agra Sansthapak Shashak Guhil Sikke Hue Aise Hee औझाजी Bhi Mile Iske उर्ध्वपटल Tatha अधोवट Chitrann Rajvansh शैवधर्म Prati Aastha Ka Pata Chalata Ranna कुम्भाकालीन 1433 1468 Ee Sikkon Tamra Mudraain.
2.मूर्ति कला : राजस्थान में काले, सफेद, भूरे तथा हल्के सलेटी, हरे, गुलाबी पत्थर से बनी मूर्तियों के अतिरिक्त पीतल या धातु की मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं। गंगा नगर जिले के कालीबंगा तथा उदयपुर के निकट आहड़-सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी से बनाई हुई खिलौनाकृति की मूर्तियां भी मिलती हैं। किन्तु आदिकाल से शास्रोक्य मूर्ति कला की दृष्टि से ईसा पूर्व पहली से दूसरी शताब्दी के मध्य निर्मित जयपुर के लालसोट नाम स्थान पर ""बनजारे की छतरी ’ ’ नाम से प्रसिद्ध चार वेदिका स्तम्भ मूर्तियों का लक्षण द्रष्टत्य है। पदमक के धर्मचक्र, मृग, मत्स, आदि के अंकन मरहुत तथा अमरावती की कला के समानुरुप हैं। राजस्थान में गुप्त शासकों के प्रभावस्वरुप गुप्त शैली में निर्मित मूर्तियों, आभानेरी, कामवन तथा कोटा में कई स्थलों पर उपलब्ध हुई हैं। गुप्तोतर काल के पश्चात राजस्थान में सौराष्ट्र शैली, महागुर्जन शैली एवं महामास शैली का उदय एवं प्रभाव परिलक्षित होता है जिसमें महामास शैली केवल राजस्थान तक ही सीमित रही। इस शैली को मेवाड़ के गुहिल शासकों, जालौर व मण्डोर के प्रतिहार शासकों और शाकम्भरी (सांभर) के चौहान शासकों को संरक्षण प्रदान कर आठवीं से दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसे विकसित किया। 15वीं शताब्दी राजस्थान में मूर्तिकला के विकास का स्वर्णकाल था जिसका प्रतीक विजय स्तम्भ (चित्तौड़) की मूर्तियां है। सोलहवी शताब्दी का प्रतिमा शिल्प प्रदर्शन जगदीश मंदिर उदयपुर में देखा जा सकता है। यद्यपि इसके पश्चात भी मूर्तियां बनी किंतु उस शिल्प वैचिञ्य कुछ भी नहीं है किंतु अठाहरवीं शताब्दी के बाद परम्परावादी शिल्प में पाश्चात्य शैली के लक्षण हमें दिखलाई देने लगते हैं। इसके फलस्वरूप मानव मूर्ति का शिल्प का प्रादूर्भाव राजस्थान में हुआ।
Murti Kala Rajasthan Me Kaale Safed Bhure Tatha Halke सलेटी Hare Gulabi Patthar Se Bani Murtiyon Ke Atirikt Peetal Ya Dhatu Ki Murtiyan Bhi Prapt Hoti Hain Ganga Nagar Jile Kaalibanga Udaipur Nikat Aahad - Sabhyata Khudai Paki Hui Mitti Banai खिलौनाकृति Milti Kintu आदिकाल शास्रोक्य Drishti Eesa Poorv Pehli Doosri Satabdi Madhy Nirmit Jaipur Lalsot Naam Sthan Par Banjare Chhatri ’ Prasidh Char Vedica Stambh Ka Lakshann द्रष्टत्य
3.धातु मूर्ति कला : धातु मूर्ति कला को भी राजस्थान में प्रयाप्त प्रश्रय मिला। पूर्व मध्य, मध्य तथा उत्तरमध्य काल में जैन मूर्तियों का यहां बहुतायत में निर्माण हुआ। सिरोही जिले में वसूतगढ़ पिण्डवाड़ा नामक स्थान पर कई धातु प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जिसमें शारदा की मूर्ति शिल्प की दृष्टि से द्रस्टव्य है। भरतपुर, जैसलमेर, उदयपुर के जिले इस तरह के उदाहरण से परिपूर्ण है। अठाहरवी शताब्दी से मूर्तिकला ने शनै: शनै: एक उद्योग का रुप लेना शुरु कर दिया था। अतः इनमें कलात्मक शैलियों के स्थान पर व्यवसायिकृत स्वरूप झलकने लगा। इसी काल में चित्रकला के प्रति लोगों का रुझान दिखलाई देता है।
Dhatu Murti Kala Ko Bhi Rajasthan Me Prayapt Prashray Mila Poorv Madhy Tatha उत्तरमध्य Kaal Jain Murtiyon Ka Yahan Bahutayat Nirmann Hua Sirohi Jile वसूतगढ़ Pindwada Namak Sthan Par Kai Pratimaein Prapt Hui Hain Jisme Sharda Ki Shilp Drishti Se द्रस्टव्य Hai Bharatpur Jaisalmer Udaipur Ke Is Tarah Udaharan Paripurn अठाहरवी Satabdi Murtikala ne Shanai Ek Udyog Roop Lena Shuru Kar Diya Tha Atah Inme Kalatmak Shailiyon व्यवसायिकृत.
4.धातु एवं काष्ठ कला :
इसके अन्तर्गत तोप, बन्दूक, तलवार, म्यान, छुरी, कटारी, आदि अस्र-शस्र भी इतिहास के स्रोत हैं। इनकी बनावट इन पर की गई खुदाई की कला के साथ-साथ इन पर प्राप्त सन् एवं अभिलेख हमें राजनीतिक सूचनाएं प्रदान करते हैं। ऐसी ही तोप का उदाहरण हमें जोधपुर दुर्ग में देखने को मिला जबकि राजस्थान के संग्रहालयों में अभिलेख वाली कई तलवारें प्रदर्शनार्थ भी रखी हुई हैं। पालकी, काठियां, बैलगाड़ी, रथ, लकड़ी की टेबुल, कुर्सियां, कलमदान, सन्दूक आदि भी मनुष्य की अभिवृत्तियों का दिग्दर्शन कराने के साथ तत्कालीन कलाकारों के श्रम और दशाओं का ब्यौरा प्रस्तुत करने में हमारे लिए महत्वपूर्ण स्रोत सामग्री है।Dhatu Aivam Kashth Kala Iske Antargat Top Banduk Talwar Myan Chhuri Katari Aadi अस्र - शस्र Bhi Itihas Ke Strot Hain Inki Banavat In Par Ki Gayi Khudai Sath Prapt Year Abhilekh Hamein RajNeetik Suchanayein Pradan Karte Aisi Hee Ka Udaharan Jodhpur Durg Me Dekhne Ko Mila Jabki Rajasthan संग्रहालयों Wali Kai तलवारें प्रदर्शनार्थ Rakhi Hui Palki काठियां BailGadi Rath Lakadi टेबुल कुर्सियां कलमदान सन्दूक Manushya Abhivritiyon Digdar
5.लोककला :
अन्ततः: लोककला के अन्तर्गत बाध्य यंत्र, लोक संगीत और नाट्य का हवाला देना भी आवश्यक है। यह सभी सांस्कृतिक इतिहास की अमूल्य धरोहरें हैं जो इतिहास का अमूल्य अंग हैं। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक राजस्थान में लोगों का मनोरंजन का साधन लोक नाट्य व नृत्य रहे थे। रास-लीला जैसे नाट्यों के अतिरिक्त प्रदेश में ख्याल, रम्मत, रासधारी, नृत्य, भवाई, ढाला-मारु, तुर्रा-कलंगी या माच तथा आदिवासी गवरी या गौरी नृत्य नाट्य, घूमर, अग्नि नृत्य, कोटा का चकरी नृत्य, डीडवाणा पोकरण के तेराताली नृत्य, मारवाड़ की कच्ची घोड़ी का नृत्य, पाबूजी की फड़ तथा कठपुतली प्रदर्शन के नाम उल्लेखनीय हैं। पाबूजी की फड़ चित्रांकित पर्दे के सहारे प्रदर्शनात्मक विधि द्वारा गाया जाने वाला गेय-नाट्य है। लोक बादणें में नगाड़ा ढ़ोल-ढ़ोलक, मादल, रावण हत्था, पूंगी, बसली, सारंगी, तदूरा, तासा, थाली, झाँझ पत्तर तथा खड़ताल आदि हैं।
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