गुरु बिन दान पुण्य जो करई। मिथ्या होय कबहूँ नहीं फलहीं।।
गुरु बिनु भर्म न छूटे भाई। कोटि उपाय करे चतुराई।।
सरलार्थ:- पहले गुरु से ज्ञान समझें, फिर दीक्षा लेकर गुरुजी के बताए अनुसार दान-पुण्य करने से आध्यात्मिक सफलता मिलती है। गुरु बिन दान आदि कर्म करने से कोई लाभ नहीं होता। गुरु के बिना भ्रम (शंका) का नाश नहीं हो सकता चाहे व्यक्ति कितनी ही चतुरता करता रहे।
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वाणी:- गुरु बिन प्रेत जन्म सब पावै। वर्ष सहंस्र गरभ सो रहावै।।
सरलार्थ:- जो साधक गुरु से दीक्षा न लेकर अपने आप साधना करते हैं, वे प्रेत योनि को प्राप्त होते हैं तथा हजारों वर्षों तक जन्म-मरण के चक्र में कष्ट उठाते रहते हैं। जिस कारण से सहंस्त्र (हजार) वर्ष तक गर्भ का कष्ट उठाते हैं।
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वाणी:- तीर्थ व्रत अरू सब पूजा। गुरु बिन दाता और न दूजा।।
नौ नाथ चौरासी सिद्धा। गुरु के चरण सेवे गोविन्दा।।
सरलार्थ:- चाहे कोई तीर्थ भ्रमण करता है, चाहे व्रत करता है, चाहे स्वयं या नकली गुरुओं से दीक्षा लेकर पूजा भी करता है, वह भक्ति कर्म कोई लाभ नहीं देता। गुरु (जो तत्त्वदर्शी है) जो सत्य साधना देते हैं जिससे इस लोक में तथा परलोक में सर्व सुख प्राप्त होता है। इसलिए कहा है कि गुरु के समान दाता (सुख व मोक्ष दाता) नहीं है। तीर्थ, व्रत तथा नकली गुरुओं द्वारा बताई भक्ति सुखदाई नहीं है। जितने भी महापुरुष या अवतार हुए हैं, उन्होंने गुरु बनाए हैं चाहे वो नाथ हुए हैं, चाहे 84 सिद्ध तथा अवतारधारी गोविन्द (श्री राम तथा श्री कृष्ण) हुए हैं, सबने गुरु धारण करके उनकी चरण सेवा की थी।
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वाणी:- गुरु बिनु काहु न पाया ज्ञाना। ज्यों थोथा भुस छड़े किसाना।।
सरलार्थ:- गुरु जी के बिना किसी को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं होता। जो नकली गुरु से ज्ञान प्राप्त करके शास्त्रविरुद्ध साधना करते हैं या मनमुखी साधना स्वयं एक-दूसरे को देखकर करते हैं, वे तो ऐसा कर रहे हैं कि जैसे मूर्ख किसान थोथे भूस अर्थात् धान की पराल (भूसा) या सरसों का झोड़ा (भूसा) जिसमें से चावल या धान तथा सरसों निकल गयी हो और भूखा पड़ा हो, इस भूसे को कूट रहा हो या छिड़ रहा हो। वर्तमान में धान को पटक-पटककर धान तथा भूसा भिन्न-भिन्न करते हैं, परन्तु केवल भूस को छिड़ाने यानि कूटने से धान-सरसों प्राप्त नहीं होती। प्रयत्न मेहनत उतनी ही करता है जो व्यर्थ रहती है और कुछ हाथ नहीं लगता। ठीक उसी प्रकार पूर्ण गुरु से दीक्षा तथा ज्ञान प्राप्त किए बिना किया गया भक्ति कर्म उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे भूसा छिड़ाने (कूटने) वाले को कुछ भी प्राप्ति नहीं होती।
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वाणी:- गुरुकी शरणा लीजै भाई। जाते जीव नरक नहीं जाई।।
गुरु कृपा कटे यम फांसी। विलम्ब ने होय मिले अविनाशी।।
सरलार्थ:- हे भाई! हे मानव! गुरुजी की शरण प्राप्त कर, जिस कारण से जीव नरक में नहीं जाएगा। या तो पार हो जाएगा या पुनः मानव जन्म (स्त्री-पुरुष) का प्राप्त करेगा। मानव जन्म मिलेगा तो फिर सतगुरु भी मिलेगा। इस प्रकार गुरु बनाकर भक्ति करने से मोक्ष मिलता है। गुरुजी की कृपा से यम द्वारा लगाई गई कर्मों का बन्धन रूपी गले की फाँस कट जाती है, अविलम्ब अविनाश परमात्मा (सत्य साहेब) मिल जाता है।
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वाणी:- गुरु सेवा में फल सर्बस आवै।
गुरु विमुख नर पार न पावै।।
गुरु वचन निश्चय कर मानै।
पूरे गुरु की सेवा ठानै।।
सरलार्थ:- गुरुजी की सेवा में सब फल यानि सब सुख आदि प्राप्त होते हैं तो गुरु धारण करके फिर गुरुजी से दूर हो जाते हैं। गुरुजी में कोई दोष निकालते हैं। जो भक्ति नहीं करते हैं या भक्ति त्याग देते हैं, गुरु विमुख कहे जाते हैं। वे व्यक्ति कभी संसार सागर से पार नहीं हो सकते। पूर्ण गुरु से दीक्षा लेकर गुरु सेवा करते हुए साधना करनी चाहिए और गुरुजी के वचनों का पालन निश्चय अर्थात् विश्वास के साथ करें।
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वाणी:- गेही भक्ति सतगुरु की करहीं। आदि नाम निज हृदय धरहीं।।
गुरु चरणन से ध्यान लगावै। अंत कपट गुरु से ना लावै।।
सरलार्थ:- ग्रहस्थी व्यक्ति को गुरु धारण करके गुरुजी के बताए अनुसार भक्ति करनी चाहिए तथा आदि नाम जो वास्तविक तथा सनातन साधना के नाम मन्त्र हैं, उनको हृदय से स्मरण करना चाहिए। गुरुजी के चरणों में ध्यान रखें अर्थात् गुरु जी को किसी समय भी दिल से दूर न करें तथा अंत = अर्थात् अन्तः करण में कभी भी गुरु से छल-कपट नहीं रखना चाहिए।
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कबीर जी ने गुरु की महिमा बताई है:-
वाणी:- गुरु ते अधिक न कोई ठहरायी।
मोक्षपंथ नहिं गुरु बिनु पाई।।
राम कृष्ण बड़ तिहुँपुर राजा।
तिन गुरु बंदि कीन्ह निज काजा।।
सरलार्थ:- गुरु से अधिक किसी को नहीं मानें। गुरु के बिना मोक्ष का रास्ता (भक्ति विधि) प्राप्त नहीं हो सकती। उदाहरण बताया है कि श्री राम तथा श्री कृष्ण जी को तो आप हिन्दू भगवान मानते हैं। इनसे बड़े तो आप नहीं हैं। जब श्री राम तथा श्री कृष्ण ने भी गुरु बनाए और उनको अर्थात् अपने गुरुदेवों को नमन किया। उनके सामने एक भक्त की तरह आधीन बनकर रहे। उनकी आज्ञा का पालन किया तो आप जी को भी गुरु बनाकर उपदेश दीक्षा लेकर साधना करनी चाहिए। श्री राम तथा श्री कृष्ण तो तीन लोक में बड़े हैं। उन्होंने भी गुरु को बन्दगी (प्रणाम) करके अपने निजी कार्यों को किया, उनकी आज्ञा मानी।
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स्मरण दीक्षा मंत्र
सत्य सुकृत की रहनी रहै, अजर अमर गहै सत्यनाम।
कहै कबीर मूल दीक्षा, सत्य (सार) शब्द प्रवान।।
भावार्थ:- इसमें सत्यनाम तथा सार शब्द की महिमा बताई है। कहा है कि मर्यादा में रहकर शुभ कर्म करे और मोक्ष करने के मंत्र अजर-अमर करते हैं। वे सत्यनाम तथा सार शब्द मूल दीक्षा यानि मुख्य दीक्षा है।
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ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 62 पर-
पुरूष नाद सुत षोडश आही। नाद पुत्र शिष्य शब्द जो लैही।।
भावार्थरू- सत्यनाम का सुमिरण करना है। गुरू जी द्वारा पद यानि पद्धति के अनुसार स्मरण करना है। जैसे परमेश्वर ने वचन (नाद) से 16 पुत्र उत्पन्न किए तो वे नाद पुत्र कहलाए। इसी प्रकार गुरू का नाद पुत्र वह कहा जाता है जो उपदेश लेकर शिष्य बनता है।
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वाणी:- मीनी खोज हनोज हरदम, उलट पन्थ की बाट है।
इला पिंगुला सुषमन खोजो, चल हंसा औघट घाट है।।
सरलार्थ:- जैसे मछली ऊपर से गिर रहे जल की धारा में उल्टी चढ़ जाती है। इसी प्रकार भक्त को ऊपर की ओर सतलोक में चलना है। उसके लिए इला (इड़ा अर्थात् बाईं नाक से श्वांस) तथा पिंगुला (दांया स्वर नाक से) तथा दोनों के मध्य सुष्मणा नाड़ी है। उसको खोजो। फिर हे भक्त! ऊपर को चल जो औघट घाट अर्थात् उलट मार्ग है। संसार के साधकों का मार्ग त्रिकुटी तक है। संत मार्ग (घाट) इससे और ऊपर उल्टा चढ़ने का मार्ग (घाट) है। यह सुष्मणा सतनाम के जाप से खुल जाता है।
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वाणी:- सहंस कमल दल भी आप साहिब, ज्यूं फूलन मध्य गन्ध है।
पूर रह्या जगदीश जोगी, सत् समरथ निर्बन्ध है।।
सरलार्थ:- सहंस्र कमल दल का स्थान सिर के ऊपरी भाग में कुछ पीछे की ओर है जहाँ पर कुछ साधक बालों की चोटी रखते हैं। वैसे भी बाल छोटे करवाने पर वहाँ एक भिन्न निशान-सा नजर आता है। इस कमल की हजार पंखुड़ियाँ हैं। इस कारण से इसे सहंस्र कमल कहा जाता है। इसमें काल निरंजन के साथ-साथ परमेश्वर की निराकार शक्ति भी विशेष तौर से विद्यमान है। जैसे भूमध्य रेखा पर सूर्य की उष्णता अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक रहती है। वह जगदीश ही सच्चा समर्थ है, वह निर्बन्ध है। काल तो 21 ब्रह्माण्डों में बँधा है। सत्य पुरूष सर्व का मालिक है।
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वाणी:- त्रिकुटी कमल परम हंस पूर्ण, सतगुरु समरथ आप है।
मन पौना सम सिंध मेलो, सुरति निरति का जाप है।।
सरलार्थ:- मस्तिष्क का वह स्थान जो दोनों आँखों के ऊपर बनी भौवों (सेलियों) के मध्य जहाँ टीका लगाते हैं, उसके पीछे की ओर आँखों के पीछे यह त्रिकुटी कमल है। इसमें पूर्ण परमात्मा सतगुरू रूप में विराजमान हैं। इस कमल की दो पंखुड़ियाँ हैं। एक का सफेद रंग है, दूसरी का काला रंग है। यहाँ पर विराजमान सतगुरू के सारनाम का जाप सुरति निरति से किया जाता है। वह उपदेशी को बताया जाता है।
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वाणी:- कंठ कमल में बसै अविद्या, ज्ञान ध्यान बुद्धि नासही।
लील चक्र मध्य काल कर्मम्, आवत दम कुं फांसही।।
सरलार्थ:- गले के पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर यह कण्ठ कमल बना है। इसमें अविद्या अर्थात् दुर्गा जी का निवास है। जिसके प्रभाव से जीव का ज्ञान तथा भक्ति के समय ध्यान समाप्त होता है तथा बुद्धि को भ्रष्ट करती है दुर्गा। यह लील चक्र अर्थात् 16 पंखुड़ियों का यह चक्र है। इसी के साथ सूक्ष्म रूप में काल निरंजन भी रहता है। दुर्गा देवी जी काल निरंजन की पत्नी है। काल ने गुप्त रहने की प्रतिज्ञा कर रखी है। ये दोनों मिलकर भक्त के अध्यात्म ज्ञान तथा ध्यान को तथा श्वांस से किए जाने वाले नाम स्मरण को भुलाते हैं। इस कमल को विकसित करने का श्रीयम् मंत्र है।
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वाणी:- हृदय कमल महादेव देवं, सती पार्वती संग है।
सोहं जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग भल रंग है।।
सरलार्थ:- हृदय कमल की स्थिति इस प्रकार है:- छाती में बने दोनों स्तनों के मध्य स्थान में ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी पर यह हृदय कमल बना है, दिल अलग अंग है। हृदय मध्य को भी कहते हैं। जैसे यह बीच (मध्य) का कमल है। तीन इससे नीचे तथा तीन ऊपर बने हैं। इस कारण से इसको हृदय कमल के नाम से जाना जाता है। इस कमल में महादेव शंकर जी तथा सती जी (पार्वती जी) रहते हैं। इस कमल (चक्र) को विकसित करने का नाम मंत्र सोहम् जाप साधक को जपना चाहिए। जो ज्ञान योग में वास्तविक ज्ञान मिला है, यह अच्छा रंग अर्थात् शुभ लगन का कार्य है। इस यथार्थ ज्ञान के रंग में रंगे जाओ।
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वाणी:- नाभि कमल में विष्णु विशम्भर, जहां लक्ष्मी संग बास है।
हरियं जाप जपन्त हंसा, जानत बिरला दास है।।
सरलार्थ:- शरीर में बनी नाभि तो पेट के ऊपर स्पष्ट दिखाई देती है। इसके ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर यह नाभि चक्र (कमल) है। इसमें लक्ष्मी जी तथा विष्णु जी का निवास है। इस कमल को विकसित करने के लिए हरियम् नाम का जाप करना चाहिए। इस गुप्त मंत्र को कोई बिरला ही जानता है जो सतगुरू का भक्त होगा।
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