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#परमेश्वर के अति-उत्कृष्ट वचन
परमेश्वर की इच्छा का पालन करने वाला कोई व्यक्ति वास्तव में कैसा होता है? और परमेश्वर पर विश्वास की सच्ची गवाही क्या है?
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परमेश्वर की इच्छा का पालन करने वाला कोई व्यक्ति वास्तव में कैसा होता है? और परमेश्वर पर विश्वास की सच्ची गवाही क्या है?
"तब अय्यूब उठा, और बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर भूमि पर गिरा और दण्डवत् करके कहा, मैं अपनी माँ के पेट से नंगा निकला और वहीं नंगा लौट जाऊँगा; यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" (अय्यूब 1:20-21)।
"और उसने कहा, अपने पुत्र को अर्थात् अपने एकलौते पुत्र इसहाक को, जिस से तू प्रेम रखता है, संग लेकर मोरिय्याह देश में चला जा; और वहाँ उसको एक पहाड़ के ऊपर जो मैं तुझे बताऊँगा होमबलि करके चढ़ा। … अब्राहम ने हाथ बढ़ाकर छुरी को ले लिया कि अपने पुत्र को बलि करे" (उत्‍पत्ति 22:2,10)।
"ये वे हैं जो स्त्रियों के साथ अशुद्ध नहीं हुए, पर कुँवारे हैं; ये वे ही हैं कि जहाँ कहीं मेम्ना जाता है, वे उसके पीछे हो लेते हैं; ये तो परमेश्‍वर के निमित्त पहले फल होने के लिये मनुष्यों में से मोल लिए गए हैं। उनके मुँह से कभी झूठ न निकला था, वे निर्दोष हैं" (प्रकाशितवाक्‍य 14:4-5)।
यीशु परमेश्वर के आदेश-समस्त मानवजाति के छुटकारे के कार्य-को पूरा करने में समर्थ था क्योंकि उसने अपनी व्यक्तिगत योजनाओं एवं विचारों के बिना परमेश्वर की इच्छा की पूरी परवाह की। इसलिए भी, वह परमेश्वर-परमेश्वर स्वयं का अंतरंग था, कुछ ऐसा जिसे तुम सभी लोग अच्छी तरह से समझते हो। (वास्तव में, वह परमेश्वर स्वयं था जिसकी गवाही परमेश्वर के द्वारा दी गई थी; इस विषय की व्याख्या करने हेतु यीशु के तथ्य का उपयोग करने के लिए मैंने इसका यहाँ उल्लेख किया है)। वह परमेश्वर की प्रबन्धन योजना को बिलकुल केन्द्र में स्थापित करने में समर्थ था, और स्वर्गिक पिता से हमेशा प्रार्थना करता था और स्वर्गिक पिता की इच्छा की तलाश करता था। उसने प्रार्थना की और कहाः "परमपिता परमेश्वर! जो तेरी इच्छा हो उसे पूरी कर, और मेरी इच्छाओं के अनुसार कार्य मत कर; तू जैसा चाहे वैसे अपनी योजना के अनुसार काम कर। मनुष्य कमज़ोर हो सकता है, किन्तु तुझे उसकी चिंता क्यों करनी चाहिए? मनुष्य तेरी चिंता का विषय कैसे हो सकता है, मनुष्य जो कि तेरे हाथों में एक चींटी के समान है? मैं अपने हृदय में केवल तेरी इच्छा को पूरा करना चाहता हूँ, और चाहता हूँ कि तू वह कर सके जो तू अपनी इच्छाओं के अनुसार मुझ में करना चाहता है।" यरूशलेम की सड़क पर, यीशु ने संताप में महसूस किया, मानो कि कोई एक नश्तर उसके हृदय में भोंक दिया गया हो, फिर भी उसमें अपने वचन से पीछे हटने की थोड़ी सी भी इच्छा नहीं थी; हमेशा से एक सामर्थ्यवान ताक़त थी जो उसे लगातार उस ओर आगे बढ़ने के लिए बाध्य कर रही थी जहाँ उसे सलीब पर चढ़ाया जाएगा। अंततः, उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया और वह मानवजाति के छुटकारे के कार्य को पूरा करते हुए, तथा मृत्यु एवं अधोलोक के बन्धनों से ऊपर उठते हुए, पापमय देह के सदृश बन गया। उसके सामने नैतिकता, नरक एवं अधोलोक ने अपनी सामर्थ्य खो दी, और उसके द्वारा परास्त हो गए थे। वह तैंतीस वर्षों तक जीवित रहा, पूरे समयकाल में उसने उस वक्त परमेश्वर के कार्य के अनुसार परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए, अपने व्यक्तिगत लाभ या नुकसान के बारे में कभी विचार नहीं करते हुए, और हमेशा परमपिता परमेश्वर की इच्छा के बारे में सोचते हुए, हमेशा अपना अधिकतम प्रयास किया। इस प्रकार, उसका बपतिस्मा हो जाने के बाद, परमेश्वर ने कहाः "यह मेरा प्रिय पुत्र है जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।" परमेश्वर के सामने उसकी सेवा के कारण जो परमेश्वर की इच्छा की समरसता में थी, परमेश्वर ने उसके कंधों पर समस्त मानवजाति के छुटकारे की भारी ज़िम्मेदारी डाल दी और उसे पूरा करने के लिए उसे आगे बढ़ा दिया, और वह इस महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करने के लिए योग्य एवं पात्र था।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर की इच्छा की समरसता में सेवा कैसे करें" से
जो परमेश्वर की सेवा करते हैं वे परमेश्वर के अंतरंग होने चाहिए, वे परमेश्वर के प्यारे होने चाहिए, और उन्हें परमेश्वर के प्रति अत्यंत वफादारी के लिए सक्षम होना चाहिए। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम लोगों के पीठ पीछे कार्यकलाप करते हो या उनके सामने, तुम परमेश्वर के सामने परमेश्वर के आनन्द को प्राप्त करने में समर्थ हो, तुम परमेश्वर के सामने अडिग रहने में समर्थ हो, और इस बात की परवाह किए बिना कि अन्य लोग तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करते हैं, तुम हमेशा अपने स्वयं के मार्ग पर चलते हो, और परमेश्वर की ज़िम्मेदारी का पूरा ध्यान रखते हो। केवल यह ही परमेश्वर का एक अंतरंग है। यह कि परमेश्वर के अंतरंग ही सीधे तौर पर उसकी सेवा करने में समर्थ हैं क्योंकि उन्हें परमेश्वर का महान आदेश और परमेश्वर की ज़िम्मेदारी दी गई है, वे परमेश्वर के हृदय को अपने स्वयं के हृदय के रूप में मानने और परमेश्वर की ज़िम्मेदारी को अपनी मानने में समर्थ हैं, और वे इस बात पर कोई विचार नहीं करते हैं कि उन्हें संभावना प्राप्त होगी या खो जाएगी: यहाँ तक कि जब उनके पास संभावित नहीं होती है, और वे कुछ भी प्राप्त नहीं करेंगे, तब भी वे एक प्रेममय हृदय के साथ हमेशा परमेश्वर में विश्वास करेंगे। और इसलिए, इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर का अंतरंग है। परमेश्वर के अंतरंग उसके विश्वासपात्र भी हैं; केवल परमेश्वर के विश्वासपात्र ही उसकी बेचैनी, और उसकी चाहतों को साझा कर सकते हैं, और यद्यपि उनकी देह दुःखदायी और कमज़ोर हैं, फिर भी वे परमेश्वर को सन्तुष्�� करने के लिए दर्द को सहन कर सकते हैं एवं उसे छोड़ सकते हैं जिससे वे प्रेम करते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को और भी अधिक ज़िम्मेदारी देता है, और वह जो परमेश्वर करेगा वह इन लोगों के माध्यम से प्रकट होता है। इस प्रकार, ये लोग परमेश्वर के प्यारे हैं, वे परमेश्वर के सेवक हैं जो उसके हृदय के अनुरूप हैं, और केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर के साथ-साथ शासन कर सकते हैं। जब तुम वास्तव में परमेश्वर के अंतरंग बन जाते हो तो तभी निश्चित रूप से तुम परमेश्वर के साथ-साथ शासन करोगे।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर की इच्छा की समरसता में सेवा कैसे करें" से
जो परमेश्वर की इच्छा को वाकई पूरा करे, परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और परीक्षणों के बीच में अपने हृदय की गहराई से उसकी प्रशंसा कर सकता है, और पूरी तरह से परमेश्वर का आज्ञापालन कर पाए और स्वयं को त्यागने में सक्षम हो पाए। इस प्रकार परमेश्वर को सच्चे हृदय, एकल-विचार और निर्मलता से प्रेम करे; ऐसा व्यक्ति पूर्ण है, और यही वह कार्य भी है जो परमेश्वर करना चाहता है, उस कार्य को निष्पादित करना चाहता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य के चरणों पर" से
परमेश्वर पर अपने विश्वास में, वह सब जो पतरस ने किया था उसमें उसने परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास किया था, और वह सब जो परमेश्वर से आता था उसमें उसने आज्ञा मानने का प्रयास किया था। बिना जरा सी भी शिकायत के, वह अपने जीवन में ताड़ना एवं न्याय, साथ ही साथ शुद्धीकरण, क्लेश एवं कमी को स्वीकार कर सकता था, उसमें से कुछ भी परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को पलट नहीं सकता था। क्या यह परमेश्वर का चरम प्रेम नहीं है? क्या यह परमेश्वर के एक प्राणी के कर्तव्य की परिपूर्णता नहीं है? ताड़ना, न्याय, क्लेश-तू मृत्यु तक आज्ञाकारिता हासिल करने में सक्षम है, और यह वह चीज़ है जिसे परमेश्वर के एक प्राणी के द्वारा हासिल किया जाना चाहिए, यह परमेश्वर के प्रेम की पवित्रता है। यदि मनुष्य इतना कुछ हासिल कर सकता है, तो वह परमेश्वर का एक योग्य प्राणी है, तथा ऐसा और कुछ नहीं है जो सृष्टिकर्ता की इच्छा को बेहतर ढंग से संतुष्ट कर सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" से
जैसे ही पतरस का उल्लेख होता है, प्रत्येक व्यक्ति उसकी प्रशंसा से भर जाता है…. उसने न केवल बहुत ही करीबी से मेरे वचनों को खाने और पीने पर ध्यान दिया, बल्कि मेरे इरादों को समझने के लिए और भी अधिक प्रयास किया, और वह अपने विचारों में लगातार दूरदर्शी एवं सतर्क रहा, इसलिए वह अपनी आत्मा में बहुत ही उत्सुकता से हमेशा चालाक बना रहा और वह अपने हर काम में मुझे प्रसन्न करने के योग्य रहा। साधारण जीवन में, उसने उन लोगों से पाठ सीखने पर बहुत करीबी से ध्यान दिया जो अतीत में असफल रहे थे ताकि और भी महान प्रयास के लिए अपने आप को प्रेरणा देता रहे, गहराई से भयभीत कि वह कहीं उन असफलता के जाल में गिर न जाए। उसने उन लोगों के विश्वास और प्रेम को आत्मसात करने पर भी करीब से ध्यान दिया जो युगों से परमेश्वर को प्रेम करते आ रहे थे। इस प्रकार से उसने न केवल नकारात्मक रूप में, बल्कि और भी अधिक महत्वपूर्णता से, सकारात्मक रूम में अपने विकास की प्रगति को तेज़ किया, जब तक कि वह मेरी उपस्थिति में मुझे सबसे अच्छी तरह से पहचानने वाला व्यक्ति न बन गया। इसी कारण से, इस की कल्पना करना कठिन नहीं होगा कि किस प्रकार से वह अपना सब कुछ मेरे हाथों में दे पाया, यहां तक कि खाने-पीने, कपड़े पहनने, सोने या रहने में भी वह स्वयं का स्वामी नहीं रहा, परन्तु मुझे सभी बातों में संतुष्टि प्रदान की जिस बुनियाद पर वह मेरे उपहार का आनन्द ले सका। कई बार मैंने उसे परीक्षाओं में रखा, जो वास्तव में उसे अधमरा करके छोड़ा, परन्तु इन सैकड़ों परीक्षाओं के मध्य में भी, उसने कभी भी मुझमें अपने विश्वास को नहीं छोड़ा या मुझ से उसका मोह भंग नहीं हुआ। बल्कि जब मैंने कहा कि मैंने उसे पहले से ही अलग कर दिया है, उसके दिल में निराशा नहीं आई या निराशा में नहीं पड़ गया, बल्कि पहले की ही तरह अपने सिद्धांतों का पालन जारी रखा ताकि मेरे प्रति प्रेम को महसूस कर सके। …मेरी उपस्थिति में उसकी वफादारी के कारण, और उस पर मेरी आशीषों के कारण, वह हज़ारों सालों के लिए मानवजाति के लिए एक उदाहरण और आदर्श बन गया है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये परमेश्वर के कथन "वचन देह में प्रकट होता है" के "छठवाँ कथन" से लिया गया
जब अय्यूब पहली बार अपनी परीक्षाओं से होकर गुज़रा था, तब उसकी सारी सम्पत्ति और उसके सभी बच्चों को उससे ले लिए गया था, परन्तु उसके परिणामस्वरूप वह नीचे नहीं गिरा या ऐसा कुछ भी नहीं कहा जो परमेश्वर के विरुद्ध पाप था। उसने शैतान की सभी परिक्षाओं पर विजय प्राप्त की थी, और उसने अपनी भौतिक सम्पत्ति एवं वंश पर, और अपनी सांसारिक सम्पत्तियों को खोने की परीक्षा पर भी विजय प्राप्त की थी, कहने का तात्पर्य है कि जब परमेश्वर ने इन्हें ले लिया तब भी वह उसकी आज्ञाओं को मानने और इसके कारण परमेश्वर को धन्यवाद एवं स्तुति देने के योग्य था। शैतान की पहली परीक्षा के दौरान अय्यूब का बर्ताव ऐसा ही था, और परमेश्वर के पहले परीक्षण के दौरान अय्यूब की गवाही ऐसी ही थी। दूसरी परीक्षा में, शैतान ने अय्यूब को तकलीफ देने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, और हालाँकि अय्यूब ने ऐसा दर्द सहा जिसे उसने पहले कभी नहीं सहा था, तौभी उसकी गवाही लोगों को अचरज में डालने के लिए काफी थी। उसने एक बार फिर से शैतान को हराने के लिए अपनी सहनशक्ति, अंगीकार, और परमेश्वर के प्रति अपनी आज्ञाकारिता का उपयोग किया, और उसके आचरण एवं उसकी गवाही को एक बार फिर से परमेश्वर के द्वारा स्वीकृत किया गया एवं उसका समर्थन किया गया। इस परीक्षा के दौरान, अय्यूब ने शैतान पर इस बात की घोषणा करने के लिए अपने वास्तविक व्यवहार का उपयोग किया कि शरीर का दर्द परमेश्वर के प्रति उसके विश्वास एवं आज्ञाकारिता को पलट नहीं सकता था या परमेश्वर के प्रति उसकी भक्ति एवं भय को छीन नहीं सकता था; वह मृत्यु का सामना करने के कारण परमेश्वर को नहीं त्यागेगा या अपनी खराई एवं सीधाई नहीं छोड़ेगा। अय्यूब के दृढ़ संकल्प ने शैतान को कायर बना दिया, उसके विश्वास ने शैतान को भयभीत और थरथरा दिया, शैतान के साथ उसकी ज़िन्दगी और मौत की जंग ने शैतान के भीतर अत्यंत घृणा एवं रोष उत्पन्न किया, उसकी खराई एवं सीधाई ने शैतान की वो हालत कर दी कि वह उसके साथ और कुछ नहीं कर सकता था, कुछ इस तरह कि शैतान ने उस पर अपने आक्रमणों को त्याग दिया और यहोवा परमेश्वर के सामने अय्यूब पर अपने आरोपों को छोड़ दिया। इसका अर्थ यह है कि अय्यूब ने संसार पर विजय प्राप्त की थी, उसने देह पर विजय प्राप्त की थी, उसने शैतान पर विजय प्राप्त की थी, और उसने मृत्यु पर विजय प्राप्त की थी; वह पूरी तरह से और सम्पूर्ण रीति से ऐसा मनुष्य था जो परमेश्वर से सम्बन्ध रखता था। इन दोनों परीक्षाओं के दौरान, अय्यूब अपनी गवाही में दृढ़ता से स्थिर खड़ा रहा, और उसने वास्तव में अपनी खराई एवं सीधाई को जीया था, और उसने परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के अपने जीवन जीने के सिद्धान्तों के दायरे को व्यापक किया था। इन दोनों परीक्षाओं से होकर गुज़रने के पश्चात्, अय्यूब के भीतर एक समृद्ध अनुभव उत्पन्न हुआ, और इस अनुभव ने उसे और भी अधिक परिपक्व एवं अत्यंत अनुभवी बना दिया था, इसने उसे मज़बूत, और प्रबल आस्था रखने वाला मनुष्य बना दिया था, और इसने उसे ईमानदारी की सच्चाई एवं योग्यता के विषय में अति आत्मविश्��ासी बना दिया जिनके तहत वह दृढ़ता से स्थिर रहा। यहोवा परमेश्वर के द्वारा अय्यूब की परीक्षाओं ने उसे मनुष्य के लिए परमेश्वर की चिंता के विषय में एक गहरी समझ एवं एहसास प्रदान किया, और उसे परमेश्वर के प्रेम की बहुमूल्यता का एहसास करने की अनुमति दी, और उस बिन्दु से परमेश्वर के लिए उसके भय में परमेश्वर के प्रति विचार और प्रेम को जोड़ दिया गया था। यहोवा परमेश्वर की परीक्षाओं ने न केवल अय्यूब को उससे दूर नहीं किया, बल्कि उसके हृदय को परमेश्वर के और निकट लाया। जब अय्यूब के द्वारा सहा गया दर्द अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया, तो वह चिंता जिसे उसने परमेश्वर यहोवा की ओर से महसूस की थी उसने उसे अपने जन्म के दिन को कोसने के अलावा और कोई विकल्प नहीं दिया था। ऐसे आचरण की योजना बहुत पहले से नहीं बनाई गई थी, परन्तु ऐसा आचरण उसके हृदय के भीतर से परमेश्वर के लिए उसके विचार एवं उसके प्रेम का एक स्वाभाविक प्रकाशन था, यह एक स्वाभाविक प्रकाशन था जो परमेश्वर के लिए उसके विचार एवं उसके प्रेम से आया था। कहने का तात्पर्य है, क्योंकि उसने स्वयं से घृणा की थी, और वह परमेश्वर को कष्ट देने के लिए तैयार नहीं था, और वह परमेश्वर को कष्ट देने की बात को सहन नहीं कर सकता था, इस प्रकार उसका विचार एवं प्रेम निःस्वार्थता के बिन्दु तक पहुंच गया था। इस समय, अय्यूब ने अपनी चिरकालिक प्रशंसा और परमेश्वर के लिए अपनी लालसा और परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति को विचार एवं प्रेम के उस स्तर तक ऊंचा किया था। ठीक उसी समय, उसने परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास एवं आज्ञाकारिता और परमेश्वर के भय को भी विचार एवं प्रेम के उस स्तर तक ऊंचा किया था। उसने स्वयं को कोई ऐसा कार्य करने की अनुमति नहीं दी जो परमेश्वर को हानि पहुंचाता, उसने अपने आपको ऐसा बर्ताव करने की अनुमति नहीं दी जो परमेश्वर को नुकसान पहुंचता, और उसने अपने कारण परमेश्वर पर कोई दुख, कष्ट, या अप्रसन्नता लाने की अनुमति भी नहीं दी थी। परमेश्वर की दृष्टि में, हालाँकि अय्यूब वही पहले का अय्यूब था, फिर भी अय्यूब के विश्वास, उसकी आज्ञाकारिता और परमेश्वर के प्रति उसके भय ने परमेश्वर को सम्पूर्ण संतुष्टि एवं आनन्द पहुंचाया था। इस समय, अय्यूब ने उस खराई को प्राप्त किया था जिसे हासिल करने के लिए परमेश्वर ने उससे अपेक्षा की थी, वह एक ऐसा मनुष्य बन गया था जो परमेश्वर की दृष्टि में "खरा एवं सीधा" कहलाने के योग्य था। उसकी धार्मिकता के कार्यों ने उसे शैतान पर विजय प्राप्त करने, और परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ता से स्थिर खड़े रहने की अनुमति दी थी। इस प्रकार उसकी धार्मिकता के कार्यों ने भी उसे सिद्ध किया था, और उसके जीवन के मूल्य को ऊंचा किए जाने, और किसी भी समय से सर्वोपरि होने की अनुमति दी, और उसे सबसे पहले ऐसा मनुष्य बनाया था जिससे आगे से शैतान के द्वारा उस पर हमला और उसकी परीक्षा न हो। क्योंकि अय्यूब धर्मी था, इसलिए शैतान के द्वारा उस पर आरोप लगाया गया था और उसकी परीक्षा ली गई थी; क्योंकि अय्यूब धर्मी था, इसलिए उसे शैतान ��ो सौंप दिया गया था; और अय्यूब धर्मी था, इसलिए उसने शैतान पर विजय प्राप्त की और उसे हराया था, और वह अपनी गवाही में दृढ़ता से स्थिर बना रहा। अब से, अय्यूब एक ऐसा व्यक्ति बन गया था जिसे फिर कभी शैतान के हाथ में नहीं दिया जाएगा, वह सचमुच में परमेश्वर के सिंहासन के सामने आया था, और उसने परमेश्वर की आशीषों के अधीन शैतान की जासूसी या तबाही के बगैर ज्योति में जीवन बिताया था … वह परमेश्वर की दृष्टि में एक सच्चा मनुष्य बन गया था, क्योंकि उसे स्वतन्त्र किया गया था …
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II" से
तुम यह कह सकते हो कि तुम पर विजय पा ली गयी है, पर क्या तुम मृत्युपर्यंत आज्ञाकारी रहोगे? संभावनाओं की परवाह किए बगैर तुम में पूरे अंत तक अनुसरण करने की क्षमता होनी चाहिए और तुम्हें किसी भी परिस्थितिवश परमेश्वर पर विश्वास नहीं खोना चाहिए। अतंतः तुम्हें गवाही के दो पक्ष प्राप्त करने हैं: अय्यूब की गवाही-मृत्यु तक आज्ञाकारिता और पतरस की गवाही - परमेश्वर का सर्वोच्च प्रेम। एक मामले में तुम्हें अय्यूब की तरह होना चाहिए, उसके पास कुछ भी सांसारिक संसाधन नहीं थे और शारीरिक पीड़ा से वह घिरा हुआ था, तब भी उसने यहोवा का नाम नहीं त्यागा। यह अय्यूब की गवाही थी। पतरस ने मृत्यु तक परमेश्वर से प्रेम रखा। जब वह मरा - जब उस क्रूस पर चढ़ाया गया - तब भी उसने परमेश्वर से प्रेम किया, उसने अपने हित या महिमामयी आशा की या अनावश्यक विचारों को स्थान नहीं दिया, और केवल परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर की व्यवस्था को पूर्णतः मानने की ही इच्छा की। गवाही देने के लिए विचार किये जाने से पूर्व तुम्हें ऐसा स्तर हासिल करना होगा, इस से पहले कि तुम ऐसे व्यक्ति बन जाओ जो विजय प्राप्त करने के बाद, पूर्णबनाया गया है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्यों का आंतरिक सत्य (2)" से
वास्तव में सच्ची गवाही क्या है? यहाँ कही गई गवाही के दो हिस्से हैं: एक जीत लिए जाने की गवाही है, और दूसरी पूर्ण बना दिए जाने की गवाही है (जो, स्वाभाविक रूप से, भविष्य की बड़ी परीक्षाओं और क्लेशों के बाद की गवाही है)। दूसरे शब्दों में, यदि तुम क्लेशों और परीक्षाओं के दौरान अडिग रहने में सक्षम हो, तो तुमने गवाही के दूसरे कदम को जनित किया है। आज जो महत्वपूर्ण है वह है गवाही का पहला कदम: ताड़ना और न्याय की परीक्षाओं की हर घटना के दौरान अडिग रहने में सक्षम होना। यह विजय प्राप्त कर लिए जाने की गवाही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आज विजय का समय है। (तुम्हें पता होना चाहिए कि आज पृथ्वी पर परमेश्वर के कार्य का समय है; पृथ्वी पर देहधारी परमेश्वर का मुख्य कार्य पृथ्वी पर उसका अनुसरण करने वाले लोगों के इस समूह को जीतने के लिए ताड़ना और न्याय का उपयोग करना है)। तुम जीत लिए जाने की गवाही देने में सक्षम हो या नहीं यह न केवल इस बात पर निर्भर करता है कि तुम बिल्कुल अंत तक अनुसरण कर सकते हो या नहीं, बल्कि, इससे भी महत्वपूर्ण रूप से, इस बात पर निर्भर करता है, कि, जब तुम परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण का अनुभव करते हो, तो तुम इस कार्य में ताड़ना और न्याय के सच्चे ज्ञान में सक्षम होते हो या नहीं, और इस बात पर कि तुम इस समस्त कार्य को वास्तव में देखते हो या नहीं। यह ऐसा मामला नहीं है कि यदि तुम बिल्कुल अंत तक अनुसरण करेंगे, तो तुम सफल होने में सक्षम हों जाओगे। तुम्हें ताड़ना और न्याय की हर घटना के दौरान स्वेच्छा से समर्पण करने में सक्षम अवश्य होना चाहिए, तुम जिस कार्य का अनुभव करते हो तुम्हें उसके प्रत्येक चरण के बारे में सच्चे ज्ञान में सक्षम अवश्य होना चाहिए, और परमेश्वर के स्वभाव का ज्ञान प्राप्त करने और आज्ञापालन करने में सक्षम अवश्य होना चाहिए। यह जीत लिए जाने की अंतिम गवाही है जो तुमसे अपेक्षित है। जीत लिए दी जाने वाली गवाही मुख्य रूप से परमेश्वर के देहधारण के बारे में तुम्हारे ज्ञान के संदर्भ में है। महत्त्वपूर्ण रूप से, गवाही का यह कदम परमेश्वर के देहधारण के लिए है। दुनिया के लोगों या जो सामर्थ्य का उपयोग करते हो उनके सामने तुम क्या करते हो या कहते हो यह मायने नहीं रखता है; सर्वोपरि जो मायने रखता है वह यह है कि तुम परमेश्वर के मुँह के सभी वचनों और उसके सभी कार्यों का पालन करने में सक्षम हो या नहीं। इसलिए, गवाही का यह कदम शैतान और परमेश्वर के सभी दुश्मनों—राक्षसों और बैरियों पर निर्देशित है जो विश्वास नहीं करते हैं कि परमेश्वर दूसरी बार देह बनेंगे तथा और भी बड़े कार्य करने के लिए आएँगे, और इसके अतिरिक्त, परमेश्वर के देह में वापस आने के तथ्य पर विश्वास नहीं करते हैं। दूसरे शब्दों में, यह सभी ईसा मसीह के शत्रुओं—उन सभी दुश्मनों पर निर्देशित किया जाता है जो परमेश्वर के देहधारण में विश्वास नहीं करते हैं।
…………
अंत के दिनों की गवाही इस बात की गवाही है कि क्या तुम पूर्ण बनाए जाने में सक्षम हो या नहीं-जिसका अर्थ है, कि अंतिम गवाही यह है कि, देहधारी परमेश्वर के मुँह से बोले गए सभी वचनों को स्वीकार करके, परमेश्वर के ज्ञान से सम्पन्न हो कर और उसके बारे में निश्चित हो कर, तुम परमेश्वर के मुँह के सभी वचनों को जीते हो और उन शर्तों को प्राप्त करते हो जो परमेश्वर तुमसे माँगता है-पतरस की शैली और अय्यूब की आस्था, इस तरह से कि तुम मृत्यु तक पालन कर सकें, अपने आप को पूरी तरह से उसे सौंप दें, और अंत में मनुष्य की एक छवि प्राप्त करें जो मानक के स्तर की हो-जिसका अर्थ है कि किसी ऐसे व्यक्ति की छवि जिसे जीता, ताड़ित किया, उसका न्याय किया जा चुका हो, और उसे पूर्ण बनाया जा चुका हो। यही वह गवाही है जो किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा दी जानी चाहिए जिसे अंततः पूर्ण बना दिया गया हो।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "अभ्यास (4)" से
परमेश्वर के लिए एक ज़बर्दस्त गवाही देना मुख्य रूप से इस बात से संबंधित है कि क्या तुम्हें व्यावहारिक परमेश्वर की समझ है या नहीं, और क्या तुम इस व्यक्ति के सामने आज्ञापालन करने में सक्षम हो या नहीं जो कि न केवल साधारण है, बल्कि सामान्य है, और यहाँ तक कि मृत्युपर्यंत आज्ञापालन कर पाते हो या नहीं। यदि तुम वास्तव में इस आज्ञाकारिता के माध्यम से परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर द्वारा ग्रहण किए जा चुके हो। मृत्यु होने तक पालन करने में सक्षम होना, और उसके सामने शिकायतों से मुक्त होना, आलोचनाएँ न करना, बदनाम न करना, धारणाएँ न रखना, और कोई अन्य आशय न रखना-इस तरह परमेश्वर को महिमा मिलेगी। एक नियमित व्यक्ति के सामने आज्ञापालन जिसे मनुष्य द्वारा तुच्छ समझा जाता है और किसी भी धारणा के बिना मृत्यु तक आज्ञा का पालन करने में सक्षम होना-यह सच्ची गवाही है। परमेश्वर लोगों से इसमें प्रवेश करने की अपेक्षा करता है इस बात की वास्तविकता यह है कि तुम उसके वचनों का पालन करने में सक्षम हो जाओ, उसके वचनों को अभ्यास में लाने में सक्षम हो जाओ, व्यावहारिक परमेश्वर के सामने झुकने और अपने स्वयं के भ्रष्टाचार को जानने में सक्षम हो जाओ, उसके सामने अपना हृदय खोलने में सक्षम हो जाओ, और अंत में उसके इन वचनों के माध्यम से उसके द्वारा प्राप्त कर लिए जाओ। जब ये वचन तुम्हें जीत लेते हैं और तुम्हें पूरी तरह उसके प्रति आज्ञाकारी बना देते हैं तो परमेश्वर को महिमा प्राप्त होती है; इसके माध्यम से वह शैतान को लज्जित करता है और अपने कार्य को पूरा करता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "जो लोग परमेश्वर की व्यावहारिकता के प्रति पूर्णतः आज्ञाकारी हो सकते हैं ये वे लोग हैं जो परमेश्वर से सचमुच प्यार करते हैं" से
इसके कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर तुम्हारा कैसे शुद्धिकरण करता है, तुम आत्मविश्वास से भरे रहते हो और परमेश्वर पर विश्वास कभी नहीं खोते हो। तुम वह करते हो जो मनुष्य को करना चाहिए। यह वही है जो परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है, और मनुष्य का दिल हर पल पूरी तरह से उसकी ओर लौटने और उसकी ओर मुड़ने में सक्षम होना चाहिए। यह जीतने वाला है। जिन लोगों को परमेश्वर जीतने वाले रूप में संदर्भित करता है ये वे लोग हैं जो अभी भी गवाह बनने, और शैतान के प्रभाव में होने और शैतान की घेराबंदी में होने पर, अर्थात्, जब अंधकार की शक्तियों के भीतर हों, तो अपना आत्मविश्वास और अपनी भक्ति बनाए रखने में सक्षम हैं। यदि तुम अभी भी परमेश्वर के लिए पवित्र दिल और अपने वास्तविक प्यार को बनाए रखने में सक्षम हो, तो चाहे कुछ हो जाए, तुम परमेश्वर के सामने गवाह बनते हो, और यही वह है जिसे परमेश्वर एक विजेता होने के रूप में संदर्भित करता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति अवश्य बनाए रखनी चाहिए" से
मनुष्य के भीतर परमेश्वर के द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कार्य के चरण में, बाहर से यह लोगों के मध्य परस्पर क्रिया के समान प्रतीत होता है, जैसे कि यह मानव प्रबंधों के द्वारा उत्पन्न हुआ हो, या मानविक हस्तक्षेप के माध्यम से। परन्तु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक चरण, और घटित होने वाला सब कुछ, शैतान के द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाज़ी होती है और परमेश्वर के लिए एक दृढ़ गवाह बने रहने के लिए लोगों से अपेक्षा की जाती है। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब की परीक्षा ली जा रही थी: पर्दे के पीछे, शैतान परमेश्वर के सामने शर्त लगा रहा था, और अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्यों के कार्य थे, और मानुष्यिक हस्तक्षेप था। हर कदम के पीछे जो परमेश्वर ने शैतान के साथ बाज़ी में परमेश्वर ने तेरे लिए उठाए-उन सभी के पीछे एक युद्ध था। उदाहरण के लिए, यदि तू अपने भाइयों और बहनों के प्रति पक्षपातपूर्ण भावना रखता है, तो तेरे पास वे शब्द होंगे जो तू कहना चाहता है-वे शब्द जो परमेश्वर को अप्रसन्न करने वाले हो सकते हैं-परन्तु यह तेरे लिए भीतरी तौर पर कठिन होगा, और इस क्षण में, तेरे भीतर एक युद्ध आरंभ होगा: क्या मैं बोलूँ या नहीं? यही एक युद्ध है। इस प्रकार से, सभी बातों में एक युद्ध होता है, और जब तेरे भीतर एक युद्ध चल रहा हो, तो भला हो तेरे वास्तविक सहयोग और पीड़ा का, परमेश्वर तेरे भीतर कार्य करता है। अंत में, अंदर तू मामले को एक तरफ रख पाता है और क्रोध स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाता है। परमेश्वर के साथ तेरे सहयोग का यही प्रभाव होता है। हर एक चीज़ जो तू करता है उसके प्रयासों के लिए तुझे एक कीमत चुकानी होती है। बिना वास्तविक कठिनाई के, तू परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता है, यह परमेश्वर को संतुष्ट करने के कुछ करीब तक भी नहीं पहुंचता है, और ये केवल एक खोखली बातें हैं! क्या ये खोखली बातें परमेश्वर को संतुष्ट कर सकती है? जब परमेश्वर और शैतान आत्मिक क्षेत्र में युद्ध करते हैं, तुझे परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करना चाहिए, और उसके लिए गवाही में तुझे किस प्रकार से दृढ़ खड़े रहना चाहिए? तुझे यह जानना चाहिए कि जो कुछ भी तेरे साथ होता है वह एक महान परीक्षण है और वह समय है जब परमेश्वर चाहता है तू उसके लिए एक गवाह बनो। बाहरी तौर पर, ये एक बड़ी बात जैसी न दिखाई दें, परन्तु जब ये बातें होती हैं तब यह प्रकट होता है कि तू परमेश्वर से प्रेम करता है या नहीं। यदि तू करता है, तो तू उसके लिए गवाही देते समय दृढ़ खड़ा रह पाएगा, और यदि तूने उसके लिए प्रेम को अभ्यास में नहीं लाया है, तो यह दिखाता है कि तू वह नहीं हो जो सत्य को अभ्यास में लाता है, यह कि तू बिना सत्य के है, और बिना जीवन के भी है, कि तू भूसे के समान है! लोगों के साथ जो कुछ भी होता है यह तब होता है जब परमेश्वर लोगों से अपेक्षा रखता है कि वे उसके लिए गवाही के लिए दृढ़ बने रहें। इस क्षण में तेरे साथ कुछ भी बड़ा नहीं घटा है, और तू महान गवाही नहीं दे रहा है, परन्तु तेरे जीवन का प्रत्येक विस्तार परमेश्वर के लिए गवाही से सम्बन्ध रखता है। यदि तू अपने भाइयों और बहनों, परिवार के सदस्यों और अपने आसपास के प्रत्येक लोगों की प्रशंसा को जीत सके; यदि एक दिन, अविश्वासी आएं और जो कुछ तू करता है उसकी तारीफ करें, और देखें कि जो कुछ परमेश्वर करता है वह अ���्भुत होता है, तो तूने गवाही दे दी होगी। हालांकि तेरे पर पास कोई परिज्ञान नहीं है और तेरी क्षमता बहुत कम है, परमेश्वर द्वारा तुझे पूर्ण किए जाने के माध्यम से, तू उसे संतुष्ट करने के योग्य होता है और उसकी इच्छा को ध्यान में रखता है। अन्य लोग देखेंगे कि सबसे कम क्षमता के लोगों में उसने कितना महान कार्य किया गया है। लोग परमेश्वर को जानेंगे, और शैतान पर विजय प्राप्त करेंगे और एक हद तक परमेश्वर के प्रति वफादार बने रहेंगे। इसलिए इस समूह के लोगों के समान किसी और के पास इतना अधिक आधार नहीं होगा। यही सबसे महान गवाही होगी।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल परमेश्वर को प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है" से
आखिरकार तुम्हें क्या गवाही देने को कहा जाएगा? तुम एक अपवित्र भूमि पर रहते हुए भी पवित्र बनने में समर्थ हो, और आगे फिर अपवित्र और अशुद्ध नहीं होगे, तुम शैतान के अधिकार क्षेत्र में रहकर भी अपने आपको उसके प्रभाव से छुड़ा लेते हो, और शैतान द्वारा ग्रसित और सताए नहीं जाते, और तुम सर्वशक्तिमान के हाथों में रहते हो। यही गवाही है, और शैतान से युद्ध में विजय का साक्ष्य है। तुम शैतान को त्यागने में सक्षम हो, जो जीवन तुम जीते हो उसमें शैतान प्रकाशित नहीं होता, परंतु क्या यह वही है जो परमेश्वर ने मनुष्य के सृजन के समय चाहा था कि मनुष्य इन्हें प्राप्त करे: सामान्य मानवता, सामान्य युक्तता, सामान्य अंतर्दृष्टि, परमेश्वर के प्रेम हेतु सामान्य संकल्पशीलता, और परमेश्वर के प्रति निष्ठा। यह परमेश्वर के प्राणी मात्र की गवाही है। तुम कहते हो कि "हम अपवित्र भूमि पर रहते हैं, परंतु परमेश्वर की सुरक्षा के कारण, उसकी अगुवाई के कारण क्योंकि उसने हम पर विजय प्राप्त की है, हमने शैतान के प्रभाव से मुक्ति पाई है। कि हम आज आज्ञा मान पाते हैं यह भी इस बात का प्रभाव है कि परमेश्वर ने हम पर विजय पाई है, और यह इसलिये नहीं कि हम अच्छे हैं, या हम सहज भाव से परमेश्वर से प्रेम करते हैं। यह इसलिये है कि परमेश्वर ने हमें चुना, और हमें पूर्वनिर्धारित किया, इसलिए हम पर आज विजय पाई गई है, हम उसकी गवाही देने में समर्थ हुए हैं, और उसकी सेवा कर सकते हैं, ऐसा इसलिये भी कि उसने हमें चुना, और हमारी रक्षा की, इस कारण हमें शैतान के अधिकार से बचाया और छुड़ाया गया और हम गंदगी को पीछे छोड़ लाल अजगर के देश में शुद्ध हो सक हैं।" साथ ही, जैसे आज तुम बाहरी रूप से जिओगे वह यह प्रगट करेगा कि तुम सामान्य मानवता धारण करते हो, कि तुम्हारी बातें तर्कपूर्ण हो, कि तुम एक सामान्य व्यक्ति की तरह हो। … अगर लोग तुम सबको देखकर कहें, "हालांकि परमेश्वर ने तुम्हें मोआब का वंशज कहा है, परंतु जिस तरह का जीवन तुम जीते हो वह ये साबित करता कि तुमने शैतान के प्रभाव को पीछे छोड़ दिया है; हालांकि वे बातें अब भी तुम्हारे भीतर हो फिर भी तुम उन चीजों की ओर से मुंह मड़ने में सफल रहे।" तब यह दिखाता है कि तुम पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर ली गई है। तुम जिस पर विजय प्राप्त कर ली गई है और बचा लिए गये हो, कहोगे, "यह सत्य है कि हम मोआब के वंशज हैं, परंतु हमें परमेश्वर ने बचा लिया है, हालांकि मोआब के वंशज त्यागे गए और श्रापित थे, और इस्रायलियों द्वारा अन्यजातियों में निर्वासित किए गए थे - यह परमेश्वर की आज्ञानुसार था, यह सत्य है, और सबके द्वारा मान्य है। परंतु आज हम उस प्रभाव से बच निकले हैं। हम अपने पुरखों का तिरस्कार करते हैं, हम अपने पुरखों की ओर अपनी पीठ फेर लेने को तैयार हैं, उसे पूर्णतः त्यागकर परमेश्वर की पूर्ण व्यवस्था का पालन करना चाहते हैं, परमेश्वर की इच्छानुसार चलना चाहते हैं और वह हमसे जिन बातों कि आशा करता है उन्हें हम हासिल करना चाहते हैं। और परमेश्वर की इच्छा का संतोष पाना चाहते हैं। मोआब ने परमेश्वर को धोखा दिया, उसने परमेश्वर की इच्छा अनुसार कार्य नहीं किया और परमेश्वर ने उस से घृणा की। परंतु हमें परमेश्वर के हृदय का ख्याल रखना चाहिये, और आज जब कि हम परमेश्वर की इच्छा को जानते हैं, तो हम परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकते, और हमें अपने पुरखों को भी त्यागना होगा!"
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्यों का आंतरिक सत्य (2)" से
जैसे ही परमेश्वर लोगों के भीतर का जीवन बन जाता है, तो वे परमेश्वर को छोड़ने में असमर्थ बन जाते हैं। क्या यह परमेश्वर का कार्य नहीं है? इससे बड़ी कोई गवाही नहीं है! परमेश्वर ने एक निश्चिति बिन्दु तक कार्य किया है; उसने लोगों को सेवा के लिये कहा है, और ताड़ना ग्रहण करो या मर जाओ और लोग उससे दूर नहीं गए हैं, जो यह दिखाता है कि ये लोग परमेश्वर के द्वारा जीत लिए गए हैं। जिन में सत्य है वे ऐसे लोग हैं जिनके पास असली अनुभव है और वे अपनी गवाही में, परमेश्वर के लिये दृढ़ता से खड़े रह सकते हैं, बिना कभी पीछे हटे और जो परमेश्वर के साथ प्रेम रखते हैं और लोगों के साथ भी सामान्य सम्बन्ध रखतेहैं, जबउनके साथ कुछघटनाएं घटती हैं, तोवे पूरी तरह से परमेश्वर का आज्ञापालन कर सकते हैं और मृत्यु तक उसका आज्ञापालन करने में सक्षम होतेहैं। वास्तविक जीवन में तुम्हारा व्यवहार और प्रकाशन परमेश्वर के लिए गवाही है, वे मनुष्य के द्वारा जीए जाते हैं और परमेश्वर के लिए गवाही ठहरते हैं, और वास्वत में यही परमेश्वर के प्रेम को आनन्द लेना है; जब इस बिन्दु तक तुम्हारा अनुभव होता है, तो उसमें एक प्रभाव की उपलब्धि हो चुकी होती है। तुम असली जीवन जी रहे होते हैं, और तुम्हारे प्रत्येक कार्य को अन्य लोग प्रशंसा से देखते हैं, तुम्हारा बाह्य रूप साधारण होता है परन्तु तुम अत्यंत धार्मिकता का जीवन जीते हैं, और जब तुम परमेश्वर के वचन दूसरों तक पहुंचाते हो तो तुम्हें परमेश्वर मार्गदर्शन और प्रबुद्धता प्रदान करता है। तुम अपने शब्दों के द्वारा परमेश्वर की इच्छा को व्यक्त करते हो और वास्तविकता को सम्प्रेषित करते हो, और आत्मा की सेवा को अच्छी तरह समझते हो। तुम खुलकर बोलते हो, तुम सभ्य और ईमानदार हो, झगड़ालू नहीं और शालीन हो, परमेश्वर के प्रबंधों को मानते हो और जब तुम पर चीज़ें आ पड‌ती हैं तो तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहते हो, चाहे कुछ भी हो जाए तुम जिसके साथ भी व्यवहार कर रहे होते हो शांत और शांतचित्त बने रहते हो। इस तरह के व्यक्ति ने परमेश्वर के प्रेम को देखा है। कुछ लोग अभी भी युवा हैं, परन्तु वे मध्यम आयु के समान व्यवहार करते हैं; वे परिपक्व होते हैं, सत्य को धारण किए रहते हैं और दूसरों के द्वारा प्रशंसा प्राप्त करते हैं - और यह वे लोग हैं जो गवाही देते हैं और परमेश्वर की अभिव्यक्ति हैं। मतलब यह कि, जब वे एक निश्चित बिन्दु तक अनुभव कर चुके होते हैं, अपने अंदर वे परमेश्वर के लिए एक अन्तर्दृष्टि रखते हैं और इसलिए वे अपने बाहरी स्वभाव में स्थिर होजाएगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर से प्रेम करने वाले लोग हमेशा के लिए उसके प्रकाश में रहेंगे" से
मनुष्य के लिए अपने स्थायी प्रावधान एवं आपूर्ति के कार्य के दौरान, परमेश्वर मनुष्य को अपनी सम्पूर्ण इच्छा एवं अपेक्षाओं को बताता है, और अपने कार्य, स्वभाव, एवं जो उसके पास है एवं जो वह है उन्हें मनुष्य को दिखता है। उद्देश्य यह है कि मनुष्य के डीलडौल को सुसज्जित किया जाए, और मनुष्य को अनुमति दिया जाए कि वह उसका अनुसरण करते हुए परमेश्वर से विभिन्न सच्चाईयों को हासिल करे—ऐसी सच्चाईयां जो हथियार हैं जिन्हें परमेश्वर के द्वारा मनुष्य को दिया गया है जिससे वह शैतान से लड़े। इस प्रकार से सुसज्जित होकर, मनुष्य को परमेश्वर की परीक्षाओं का सामना करना होगा। परमेश्वर के पास मनुष्य को परखने के लिए कई माध्यम एवं बढ़िया मार्ग हैं, परन्तु उनमें से प्रत्येक को परमेश्वर के शत्रु अर्थात् शैतान के "सहयोग" की आवश्यकता है। कहने का तात्पर्य है, मनुष्य को हथियार देने के बाद जिससे वह शैतान से युद्ध करे, परमेश्वर मनुष्य को शैतान को सौंप देता है और शैतान को अनुमति देता है कि वह मनुष्य के डीलडौल को "परखे।" यदि मनुष्य शैतान की युद्ध संरचना को तोड़कर आज़ाद हो सकता है, यदि वह शैतान की घेराबंदी से बचकर निकल सकता है और तब भी जीवित रह सकता है, तो मनुष्य ने उस परीक्षा को उत्तीर्ण कर लिया होगा होगा। परन्तु यदि मनुष्य शैतान की युद्ध संरचना को छोड़कर जाने में असफल हो जाता है, और शैतान के आधीन हो जाता है, तो उस��े उस परीक्षण को उत्तीर्ण नहीं किया होगा। परमेश्वर मनुष्य के किसी भी पहलु की जांच कर ले, उसकी जांच का मापदंड है कि मनुष्य अपनी गवाही में दृढ़ता से स्थिर रहता है या नहीं जब शैतान के द्वारा उस पर आक्रमण किया जाता है, और उसने परमेश्वर को छोड़ा है या नहीं और शैतान की घेराबंदी के समय शैतान के प्रति समर्पित एवं अधीन हुआ है या नहीं। ऐसा कहा जा सकता है कि मनुष्य को बचाया जा सकता है या नहीं यह इस बात पर निर्भर होता है कि वह शैतान पर विजय प्राप्त करके उसे हरा सकता है या नहीं, और वह स्वतन्त्रता हासिल कर सकता है या नहीं यह इस बात पर निर्भर होता है कि वह शैतान के बन्धनों पर विजय प्राप्त करने के लिए, एवं शैतान से आशा का त्याग करवाने एवं उसे अकेला छोड़ने के लिए मजबूर करने हेतु अपने स्वयं के हथियारों को उठा सकता है या नहीं जिन्हें परमेश्वर के द्वारा उसे दिया गया था। यदि शैतान आशा को त्याग देता है और किसी को छोड़ देता है, तो इसका अर्थ है कि शैतान इस व्यक्ति को परमेश्वर से लेने के लिए फिर कभी कोशिश नहीं करेगा, वह इस व्यक्ति पर फिर कभी दोष नहीं लगाएगा और हस्तक्षेप नहीं करेगा, वह फिर कभी मनमर्जी तरीके से उसको प्रताड़ित नहीं करेगा या उस पर आक्रमण नहीं करेगा; केवल इस प्रकार के व्यक्ति को ही सचमुच में परमेश्वर के द्वारा हासिल किया जाएगा। यही वह सम्पूर्ण प्रक्रिया है जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों को हासिल करता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II" से
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सृष्टिकर्ता के अधिकार को समय, स्थान, या भूगोल द्वारा विवश नहीं किया जा सकता है, और न ही उसके अधिकारों का मूल्यांकन किया जा सकता है
आओ हम उत्पत्ति 22:17-18 को देखें। यह यहोवा परमेश्वर के द्वारा बोला गया एक और अंश है, जिसमें उसने अब्राहम से कहा, "इस कारण मैं निश्चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर के बालू के समान अनगिनत करूँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा। और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगीः क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।" यहोवा परमेश्वर ने अब्राहम को कई बार आशीष दी कि उसके वंश के लोग बहुगुणित होंगे - और किस सीमा तक बहुगुणित होंगे? उस सीमा तक जितना पवित्र शास्त्र में लिखा हैः "आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर के बालू के समान।" कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर अब्राहम को आकाश के तारों के समान अनगिनित, और समुद्र के तीर के रेत के किनकों के समान ढेर सारा वंश देना चाहता था। परमेश्वर ने कल्पना का इस्तेमाल करते हुए कहा था, और इस कल्पना से यह देखना कठिन नहीं है कि परमेश्वर अब्राहम को मात्र एक, दो, या हज़ार वंश नहीं देगा, किन्तु गणना से बाहर, इतना कि वे जातियों का एक समूह बन जाएँगे, क्योंकि परमेश्वर ने अब्राहम से प्रतिज्ञा की थी कि वो बहुत सी जातियों का पिता होगा। और, क्या उस संख्या का निर्धारण मनुष्य द्वारा किया गया था, या परमेश्वर के द्वारा निर्धारित किया गया था? एक मनुष्य के पास जितने वंश होते हैं क्या वह उनको नियन्त्रित कर सकता है? क्या यह उसके बस की बात है? यह मनुष्य के बस की बात भी नहीं है कि वह इस बात का निर्धारण कर सके कि उसके पास अनेक वंश होंगे या उसका अकेले का वंश ही "आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर के किनकों के समान" होंगे। कौन अपनी संतानों के लिए ऐसी इच्छा न करेगा कि वे तारों के समान अनगिनित हो जाएँ? दुर्भाग्यवश, चीज़ें वैसी घटित नहीं होती हैं जैसा तुम चाहते हो। मनुष्य के कुशल और योग्य होने के बावजूद भी, यह उसके बस की बात नहीं है; कोई भी उस सीमा से बाहर खड़ा नहीं हो सकता है जिसे परमेश्वर द्वारा ठहरा दिया गया है। जितना वह तुम्हें अनुमति देता है, उतना ही तुम्हारे पास होगाः यदि परमेश्वर तुम्हें थोड़ा देता है, तब तुम्हारे पास कभी भी बहुत ज़्यादा नहीं होगा, और यदि परमेश्वर तुम्हें बहुत ज़्यादा देता है, तो इस में तुम्हें बुरा नहीं मानना चाहिए कि तुम्हारे पास कितना है। क्या ऐसा ही नहीं है? यह सब कुछ परमेश्वर के ऊपर है, मनुष्य के ऊपर नहीं! मनुष्य के ऊपर परमेश्वर द्वारा शासन किया जाता है, और कोई बच नहीं सकता है।
जब परमेश्वर ने कहा, "मैं तेरे वंश को....अनगिनित करूँगा," तो यह वह वाचा थी जिसे परमेश्वर ने अब्राहम के साथ बाँधी थी, और "मेघधनुष की वाचा" के समान, इसे अनंतकाल के लिए पूरा किया जाएगा, और यह परमेश्वर द्वारा अब्राहम को दी गई प्रतिज्ञा थी। केवल परमेश्वर ही ऐसी प्रतिज्ञा को पूरा करने में योग्य और सक्षम है। इसके बावजूद कि मनुष्य इस पर विश्वास करता है या नहीं, इसके बावजूद कि मनुष्य इसे स्वीकार करता है या नहीं, और इसके बावजूद कि मनुष्य इसे किस नज़रिए से देखता है, और इसे कितना महत्व देता है, यह सब कुछ परमेश्वर के द्वारा बोले गए वचनों के अनुसा��� शब्दशः पूरा हो जाएगा। मनुष्य की इच्छा और विचारधारा में हुए परिवर्तन के कारण परमेश्वर के वचनों को बदला नहीं जाएगा, और न ही किसी व्यक्ति, और किसी वस्तु या तत्व में हुए बदलाव के द्वारा इसे पलटा जाएगा। सभी चीज़ें विलुप्त हो सकती हैं, परन्तु परमेश्वर के वचन सर्वदा बने रहेंगे। इसके विपरीत, जिस दिन सभी चीज़ें विलुप्त हो जाएँगी यह बिलकुल वही दिन होगा जब परमेश्वर के वचन सम्पूर्ण रीति से पूरे हो जाएँगे, क्योंकि वह सृष्टिकर्ता है, और उसके पास सृष्टिकर्ता का अधिकार है, और सृष्टिकर्ता की सामर्थ है, और वह सब वस्तुओं और सम्पूर्ण जीवन शक्ति को नियन्त्रित करता है; वह शून्य से कुछ भी बना सकता है, या कुछ भी को शून्य बना सकता है, और वह जीवितों से लेकर मुर्दों तक सभी चीज़ों के रूपान्तरण को नियन्त्रित करता है, और इस प्रकार परमेश्वर के लिए, किसी व्यक्ति के वंश को बहुगुणित करने से अधिक आसान कुछ भी नहीं हो सकता है। यह मनुष्य को परियों की कहानी के समान बहुत बढ़िया सुनाई देता है, परन्तु जब परमेश्वर किसी कार्य को करने का निर्णय ले लेता है, और उसे करने की प्रतिज्ञा करता है, तो यह काल्पनिक नहीं है और न ही परियों की कहानी है। उसके बजाए यह एक सच्चाई है जिसे परमेश्वर ने पहले से ही देख लिया है, और वह निश्चय घटित होगा। क्या तुम लोग इसकी तारीफ करते हो? क्या ये तथ्य प्रमाणित करते हैं कि अब्राहम के वंश अनगिनित थे? और कितने अनगिनित? "आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर के बालू के समान" इतने अनगिनित जितना परमेश्वर के द्वारा कहा गया था? क्या वे सब जातियों और प्रदेशों में, या संसार में हर जगह फैल गए थे? और इस तथ्य को किसने पूरा किया था? क्या यह परमेश्वर के वचनों के अधिकार के द्वारा पूरा किया गया था? परमेश्वर के वचनों को कहने के बाद, सैकड़ों और हज़ारों सालों से परमेश्वर के वचन लगातार पूरे होते गए, और निरन्तर प्रमाणित तथ्य बन रहे हैं; यह परमेश्वर के वचनों की शक्ति, और परमेश्वर के अधिकार की पहचान है। जब परमेश्वर ने आदि में सब वस्तुओं की सृष्टि की, परमेश्वर ने कहा उजियाला हो, और उजियाला हो गया। यह बहुत जल्द ही हो गया, और बहुत कम समय में ही पूरा हो गया, और उसकी प्राप्ति और सम्पूर्णता में कोई देरी नहीं हुई थी; परमेश्वर के वचन के प्रभाव त्वरित थे। दोनों ही परमेश्वर के अधिकार का प्रदर्शन थे, परन्तु जब परमेश्वर ने अब्राहम को आशीष दी, तो उसने मनुष्य को परमेश्वर के अधिकार की हस्ती के दूसरे पहलू को देखने की मंजूरी दी, और उसने मनुष्य को सृष्टिकर्ता के अधिकार की बहुमूल्यता को देखने की अनुमति दी, और इसके अतिरिक्त, मनुष्य को सृष्टिकर्ता के अधिकार का एक अधिक वास्तविक, अति उत्तम पहलू देखने का अवसर प्रदान किया।
जब एक बार परमेश्वर के वचन बोल दिए जाते हैं, परमेश्वर का अधिकार इस कार्य की कमान अपने हाथ में ले लेता है, और वह तथ्य जिसकी प्रतिज्ञा परमेश्वर के मुँह के द्वारा की गई थी धीर धीरे वास्तविक बनना प्रारम्भ हो जाता है। परिणामस्वरूप सभी चीज़ों में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है, जैसे बसंत के आगमन पर घास हरी हो जाती है, फूल खिलने लग जाते हैं, पेड़ों में कोपलें फूटने लग जाती हैं, पक्षी गाना शुरू कर देते हैं, कालहँस लौट आते हैं, मैदान लोगों से भर जाता है....। बसंत के आगमन के साथ ही सभी चीज़ें नई हो जाती हैं, और यह सृष्टिकर्ता का आश्चर्यकर्म है। जब परमेश्वर अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करता है, स्वर्ग और पृथ्वी में सब वस्तुएँ परमेश्वर के वचन के अनुसार नई हो जाती हैं और बदल जाते हैं - कोई भी इससे अछूता नहीं रहता है। जब परमेश्वर के मुँह से समर्पण और प्रतिज्ञा के वचनों को बोल दिया जाता है, सभी चीज़ें उसे पूरा करने के लिए कार्य करती हैं, और उसकी पूर्णता के लिए कुशलता से कार्य करते हैं, और सभी जीवधारियों को सृष्टिकर्ता के शासन के अधीन सावधानी से प्रदर्शित और क्रमागत किया जाता है, और वे अपनी अपनी भूमिकाओं को निभाते हैं, और अपने अपने कार्य को करते हैं। यह सृष्टिकर्ता के अधिकार का प्रकटीकरण है। तुम इस में क्या देखते हो? तुम परमेश्वर के अधिकार को कैसे जानोगे? क्या परमेश्वर के अधिकार का एक दायरा है? क्या कोई समय सीमा है? क्या इसे एक निश्चित ऊँचाई, या एक निश्चित लम्बाई तक कहा जा सकता है? क्या इसे किसी निश्चित आकार या बल के तहत कहा जा सकता है? क्या इसे मनुष्य के आयामों के द्वारा नापा जा सकता है? परमेश्वर का अधिकार रूक रूककर जगमगाता नहीं है, आता जाता नहीं, और कोई नहीं है जो यह नाप सके कि उसका अधिकार कितना महान है। इसके बावजूद कि कितना समय बीत चुका है, जब परमेश्वर एक मनुष्य को आशीष देता है, तो यह आशीष बनी रहेगी, और इसकी निरन्तरता परमेश्वर के अधिकार की बहुमूल्यता की गवाही को धारण किए हुए है, और मानवजाति को परमेश्वर के पुनः प्रकट होने वाले और कभी न बुझनेवाली जीवन शक्ति को बार बार देखने की अनुमति देगी। उसके अधिकार का प्रत्येक प्रकटीकरण उसके मुँह के वचनों का पूर्ण प्रदर्शन है, और इसे सब वस्तुओं और मानवजाति के सामने प्रदर्शित किया गया है। इससे अधिक क्या, उसके अधिकार के द्वारा प्राप्त सब कुछ तुलना से परे उत्कृष्ट है, और उस में कुछ भी दोष नहीं है। दूसरे शब्दों में उसके विचार, उसके वचन, उसका अधिकार, और सभी कार्य जो उसने पूरा किया है वे अतुल्य रूप से एक सुन्दर तस्वीर हैं, जहाँ तक जीवधारियों की बात है, वह मानवजाति की भाषा उसके महत्व और मूल्य के स्पष्ट उच्चारण में असमर्थ है। जब परमेश्वर एक व्यक्ति से प्रतिज्ञा करता है, तो चाहे वे जहाँ भी रहते हों, या जो भी करते हों, प्रतिज्ञा को प्राप्त करने के पहले या उसके बाद की उनकी पृष्ठभूमि, या उनके रहने के वातावरण में चाहे जितने बड़े उतार चढ़ाव आए हों - यह सब कुछ परमेश्वर के लिए उतने ही चिरपरिचित हैं जितना उसके हाथ का पिछला भाग। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर के वचनों को कहने के बाद कितना ही समय क्यों न बीत गया हो, उसके लिए यह ऐसा है मानो उन्हें अभी अभी बोला गया है। दूसरे शब्दों में परमेश्वर के पास सामर्थ है और उसके पास ऐसा अधिकार है, जिससे वह हर एक प्रतिज्ञा की जो वह मानवजाति के साथ करता है, लगातार सुधि ले सकता है, नियन्त्रण कर सकता है और उनका एहसास कर सकता है, इसके बावजूद कि प्रतिज्ञा क्या है, इसके बावजूद कि इसे सम्पूर्ण रीति से पूरा होने में कितना लम्बा समय लगता है, और, इसके अतिरिक्त, इसके बावजूद कि उसका दायरा कितना व्यापक है जिस पर उसकी परिपूर्णता असर डालती है - उदाहरण के लिए, समय, भूगोल, जाति, इत्यादि - इस प्रतिज्ञा को पूरा किया जाएगा, और इसका एहसास किया जाएगा, और, इसके आगे, उसके पूर्ण होने या एहसास करने में उसे ज़रा सी भी कोशिश करने की आवश्यकता नहीं होगी। इससे क्या साबित होता है? यह कि परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ की व्यापकता सम्पूर्ण विश्व, और सम्पूर्ण मानवजाति को नियन्त्रित करने के लिए काफी है। परमेश्वर ने उजियाले को बनाया, इसका मतलब यह नहीं कि वह केवल उजियाले का ही प्रबन्ध करता है, या यह कि वह केवल जल का ही प्रबन्ध करता है क्योंकि उसने जल को सृजा, और बाकी सब कुछ परमेश्वर से संबंधित नहीं है। क्या यह ग़लतफहमी नहीं है? यद्यपि सैकड़ों सालों बाद अब्राहम के लिए परमेश्वर की आशीषें धीरे धीरे मनुष्य की यादों में धूमिल हो चुकी थीं, फिर भी परमेश्वर के लिए वह प्रतिज्ञा जस की तस बनी रही। यह तब भी पूरा होने की प्रक्रिया में था, और कभी रूका नहीं था। मनुष्य ने न तो कभी जाना और न सुना कि परमेश्वर ने किस प्रकार अपने अधिकार का इस्तेमाल किया था, और किस प्रकार सभी चीज़ों को प्रदर्शित और क��रमागत किया था, और इस समय के दौरान परमेश्वर द्वारा सब वस्तुओं की सृष्टि के बीच कितनी ढेर सारी कहानियाँ घटित हुईं थीं, किन्तु परमेश्वर के अधिकार के प्रकटीकरण और उसके कार्यों के प्रकाशन के प्रत्येक बेहतरीन अंश को सभी चीज़ों तक पहुँचाया गया और उनके बीच महिमावान्वित किया गया था, सब वस्तुएँ सृष्टिकर्ता के अद्भुत कार्यों को दिखाते और उनके बारे में बात करते थे, और सभी चीज़ों के ऊपर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता की प्रत्येक लोकप्रिय कहानी को सभी चीज़ों के द्वारा सर्वदा घोषित किया जाएगा। वह अधिकार जिस के तहत परमेश्वर सभी चीज़ों पर शासन करता है, और परमेश्वर की सामर्थ, सभी चीज़ें को दिखाते हैं कि परमेश्वर सभी समयों में हर जगह उपस्थित है। जब तुम परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ की सर्वउपस्थिति के साक्षी बन जाते हो, तो तुम देखोगे कि परमेश्वर सभी समयों में हर जगह उपस्थित है। परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ समय, भूगोल, स्थान, या किसी व्यक्ति, तत्व या वस्तु की विवशता से अलग है। परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ की व्यापकता मनुष्य की कल्पनाओं से श्रेष्ठ हैः यह मनुष्य के लिए अथाह है, मनुष्य के लिए अकल्पनीय है, और इसे कभी भी मनुष्य के द्वारा पूरी तरह जाना नहीं जा सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से
         से: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-परमेश्वर के वचनों के उद्धरणों
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34. क्या वह हर व्यक्ति जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार नहीं करता है, वास्तव में विपत्ति में पड़ जाएगा?
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अगर कोई केवल परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेता है, तो क्या यह परमेश्वर पर विश्वास की वास्तविक गवाही है?
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अगर कोई केवल परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेता है, तो क्या यह परमेश्वर पर विश्वास की वास्तविक गवाही है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
शांतिमय पारिवारिक जीवन या भौतिक आशीषों के साथ, यदि तुम केवल परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं, तो तुमने परमेश्वर को प्राप्त नहीं किया है, और परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास पराजित हो गया है। परमेश्वर ने शरीर में अनुग्रह के कार्य के एक चरण को पहले ही पूरा कर लिया है, और मनुष्य को भौतिक आशीषें प्रदान कर दी हैं - परंतु मनुष्य को केवल अनुग्रह, प्रेम और दया के साथ सिद्ध नहीं किया जा सकता। मनुष्य के अनुभवों में वह परमेश्वर के कुछ प्रेम का अनुभव करता है, और परमेश्वर के प्रेम और उसकी दया को देखता है, फिर भी कुछ समय तक इसका अनुभव करने के बाद वह देखता है कि परमेश्वर का अनुग्रह और उसका प्रेम और उसकी दया मनुष्य को सिद्ध बनाने में असमर्थ हैं, और उसे प्रकट करने में भी असमर्थ है जो मनुष्य में भ्रष्ट है, और न ही वे मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से उसे आज़ाद कर सकते हैं, या उसके प्रेम और विश्वास को सिद्ध बना सकते हैं। परमेश्वर का अनुग्रह का कार्य एक अवधि का कार्य था, और मनुष्य परमेश्वर को जानने के लिए परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने पर निर्भर नहीं रह सकता।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल पीड़ादायक परीक्षाओं का अनुभव करने के द्वारा ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो" से
यदि कोई केवल परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाए, तो वह परमेश्वर के द्वारा पूर्ण नहीं बनाया जा सकता है। कुछ लोग शारीरिक शांति और आनंद को पाकर संतुष्ट हो पाते होंगे, शत्रुता या किसी दुर्भाग्य के बिना सरल सा जीवन, परिवार में बिना किसी लड़ाई या झगड़े के शांति से जीवन व्यतीत कर संतुष्ट रह पाते होंगे। वे यह भी विश्वास कर सकते हैं कि यही परमेश्वर की आशीष है, पर सच्चाई तो यह है, यह परमेश्वर का केवल अनुग्रह है। तुम लोग सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह में आनंदित होकर संतुष्ट नहीं रह सकते। इस प्रकार का विचार नीच है। तू प्रतिदिन क्यों न परमेश्वर का वचन पढ़े, प्रतिदिन प्रार्थना करे और तेरी अपनी आत्मा में आनंद और शांति का अनुभव करे, तो भी तू अंत में कह नहीं सकता कि परमेश्वर और उसके कार्य का ज्ञान या किसी प्रकार का अनुभव मिला है, और इसके कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तूने परमेश्वर का कितना वचन खाया और पीया है, यदि तू अपनी आत्मा में केवल शांति और आनंद का आभास करता है और यह कि परमेश्वर के वचन अतुल्य रूप से मीठे हैं, मानो तू इसका पर्याप्त आनंद नहीं उठा सकता है, परंतु तुझे परमेश्वर के वचन का कोई वास्तविक अनुभव नहीं हुआ है, फिर तू इस प्रकार के विश्वास से क्या प्राप्त कर सकता है? यदि तू परमेश्वर के वचन के सार को जीवन में उतार नहीं सकता, तेरा खाना-पीना और प्रार्थना पूरी तरह से धर्म से संबंधित है। तब इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर द्वारा पूर्ण नहीं किया जा सकता है और प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "प्रतिज्ञाएं उनके लिए जो पूर्ण बनाए जा चुके हैं" से
जो लोग परमेश्वर के अनुग्रहों का आनन्द उठाने से अधिक और कुछ नहीं करते हैं वे पूर्ण नहीं बनाए जा सकते हैं, या परिवर्तित नहीं किए जा सकते हैं, और उनकी आज्ञाकारिता, धर्मनिष्ठता, और प्रेम तथा धैर्य सभी सतही हैं। जो लोग केवल परमेश्वर के अनुग्रहों का आनन्द लेते हैं वे वास्तव में परमेश्वर को नहीं जान सकते हैं, और यहाँ तक कि जब वे परमेश्वर को जान जाते हैं, तब भी उनका ज्ञान उथला होता है, और वे ऐसी बातें कहते हैं जैसे कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, या परमेश्वर मनुष्य के प्रति करूणामय है। यह मनुष्य के जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, और यह नहीं दिखाता है कि लोग सचमुच में परमेश्वर को जानते हैं। यदि, जब परमेश्वर के वचन उन्हें शुद्ध करते हैं, या जब परमेश्वर के परीक्षण उन पर आते हैं, तो लोग परमेश्वर की आज्ञा मानने में असमर्थ होते हैं-उसके बजाए, यदि वे सन्देहास्पद हो जाते हैं, और नीचे गिर जाते हैं-तो वे न्यूनतम आज्ञाकारी भी नहीं रहते हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम्हें परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करना चाहिए" से
लोग केवल अनुग्रह की प्राप्ति और शांति के आनंद को परमेश्वर में विश्वास के प्रतीक के रूप में, और आशीषों के लिए माँग करने को परमेश्वर में विश्वास के आधार के रूप में मानते हैं। बहुत कम लोग परमेश्वर को जानने की या अपने स्वभाव में बदलाव करने की माँग करते हैं। परमेश्वर में लोगों का विश्वास परमेश्वर से उन्हें एक उपयुक्त मंजिल प्रदान करवाने, पृथ्वी पर समस्त अनुग्रह दिलवाने, परमेश्वर को अपना सेवक बनाने, परमेश्वर के साथ उनके शांतिपूर्ण, मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखवाने, और उनके बीच कभी भी कोई संघर्ष नहीं होने देने की चाहत है। अर्थात्, परमेश्वर में उनके विश्वास के लिए आवश्यक है कि परमेश्वर उनकी सभी माँगों को पूरा करने का वादा करे, वे जो कुछ भी प्रार्थना करते हैं उन्हें प्रदान करे, ठीक जैसा कि बाइबिल में कहा गया है "मैं तुम्हारी सारी प्रार्थनाओं को सुनूँगा।" उन्हें परमेश्वर से अपेक्षा है कि वे किसी का न्याय या किसी के साथ व्यवहार न करे, क्योंकि परमेश्वर हमेशा दयालु उद्धारकर्ता यीशु है, जो लोगों के साथ हर समय और हर स्थान पर अच्छे संबंध रखता है। जिस तरह से वे विश्वास करते हैं, वह इस तरह से है: वे हमेशा बेशर्मी के साथ परमेश्वर से चीज़ें माँगे, और परमेश्वर उन्हें सब कुछ आँख बंद करके प्रदान कररे, चाहे वे विद्रोही हों या आज्ञाकारी। लोग परमेश्वर से लगातार "भुगतान" की माँग करते हैं और परमेश्वर को किसी भी प्रतिरोध के बिना भुगतान अवश्य करना चाहिए, और दोहरा भुगतान करना चाहिए, चाहे परमेश्वर ने उनसे कुछ भी प्राप्त किया हो या नहीं। परमेश्वर केवल उनकी दया पर ही हो सकता है; वह मनमाने ढंग से गुप्त रूप से लोगों के लिए योजना नहीं बना सकता है, अपने उस विवेक और धर्मी स्वभाव को जैसा चाहे लोगों पर, उनकी अनुमति के बिना, तो बिल्कुल भी प्रकट नहीं कर सकता है जो कई वर्षों से छुपा हुआ है। वे परमेश्वर के सामने सिर्फ अपने पापों की स्वीकारोक्ति करें और परमेश्वर बस उनको पाप-मुक्त कर दे, और इससे तंग न हो सकें, और ऐसा हमेशा चलता रहे। वे परमेश्वर को सिर्फ आदेश दें और वह सिर्फ उस आज्ञा का पालन करे, जैसा कि बाइबल में अभिलिखित है कि "वह इसलिये नहीं आया कि मनुष्य द्वारा उसकी सेवा टहल की जाए, परन्तु सेवा टहल करने आया। वह मनुष्य का सेवक बनने के लिए आया।" क्या तुम लोगों ने हमेशा इस तरह से विश्वास नहीं किया है? जब तुम लोग परमेश्वर से कुछ प्राप्त नहीं कर सकते हो तो तुम लोग भाग जाना चाहते हो। और जब कोई चीज तुम लोगों की समझ में नहीं आती है तो तुम लोग बहुत क्रोधित हो जाते हो, और इस हद तक भी चले जाते हो कि सभी तरह के दुर्वचन कहने लगते हो। तुम लोग परमेश्वर को अपना विवेक और चमत्कार बस पूरी तरह से व्यक्त नहीं करने दोगे, बल्कि इसके बजाय तुम लोग मात्र अस्थायी सुविधा और आराम का आनंद लेना चाहते हो। अब तक, परमेश्वर में तुम लोगों के विश्वास में तुम लोगों की प्रवृत्ति वही पुराने विचारों वाली रही है। यदि परमेश्वर तुम लोगों को थोड़ा सा प्रताप दिखाता है तो तुम लोग अप्रसन्न हो जाते हो; क्या तुम लोग अब देखते हो कि तुम लोगों का डील-डौल कैसा है? ऐसा मत सोचो कि तुम सभी लोग परमेश्वर के प्रति वफ़ादार हो जबकि वास्तव में तुम लोगों के पुराने विचारों में बदलाव नहीं हुआ है। जब तक तुम्हारे साथ कुछ अशुभ नहीं होता है, तब तक तुम सोचते हो कि हर चीज आसानी से चल रही है और तुम परमेश्वर को सर्वोच्च शिखर तक प्यार करते हो। लेकिन जब तुम्हारे साथ ज़रा-सा भी अशुभ हो जाता है तो तुम अधोलोक में गिर जाते हो। क्या यही तुम्हारा परमेश्वर के प्रति वफादार होना है?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "तुम लोगों को हैसियत के आशीषों को अलग रखना चाहिए और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए" से
अधिकांश लोग शांति और अन्य लाभों के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। जब तक यह तुम्हारे लाभ के लिए न हो, तब तक तुम परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हो, और यदि तुम परमेश्वर के अनुग्रह प्राप्त नहीं कर सकते हो, तो तुम खीज जाते हो। यह तुम्हारी असली कद-काठी कैसे हो सकती है? जब अनिवार्य पारिवारिक की घटनाओं (बच्चों का बीमार पड़ना, पति का अस्पताल जाना, ख़राब फसल पैदावार, परिवार के सदस्यों का उत्पीड़न इत्यादि) की बात आती है, तो तुम इन्हें भी उन चीजों के माध्यम से नहीं कर सकते हो जो प्रायः दिन-प्रतिदिन जीवन में होती हैं। जब ऐसी चीजें होती हैं, तो तुम घबरा जाते हो, तुम्हें पता नहीं होता कि क्या करना है-और अधिकांश समय, तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो। तुम शिकायत करते हो कि परमेश्वर के वचनों ने तुम्हारे साथ चालाकी की है, कि परमेश्वर के कार्य ने तुम्हें चारों ओर से गड़बड़ कर दिया है। क्या तुम लोगों के ऐसे विचार नहीं हो? क्या तुम्हें लगता है कि ऐसी चीजें कभी-कभार ही तुम लोगों के बीच में होती हैं? तुम लोग इस तरह की घटनाओं के बीच रहते हुए हर दिन बिताते हो। तुम लोग परमेश्वर में अपने विश्वास की सफलता के बारे में और कैसे परमेश्वर की इच्छा को पूरा करें, इस बारे में जरा सा भी विचार नहीं करते हो। तुम लोगों की असली कद-काठी बहुत छोटी है, यहाँ तक कि चूजे से भी छोटी है। जब तुम लोगों के पतियों के व्यवसाय में नुकसान होता है तो तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो, जब तुम लोग स्वयं को परमेश्वर की सुरक्षा के बिना किसी वातावरण में पाते हो तब भी तुम लोग परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो, यहाँ तक कि तुम तब भी शिकायत करते हो जब तुम्हारे चूजे मर जाते हैं या तुम्हारी बूढ़ी गाय बाड़े में बीमार पड़ जाती है, तुम तब शिकायत करते हो जब तुम्हारे बेटे का परिवार शुरू करने का समय आता है लेकिन तुम्हारे परिवार के पास पर्याप्त धन नहीं होता है, और जब कलीसिया के कार्यकर्ता तुम्हारे घर पर कुछ भोजन खाते हैं, लेकिन कलीसिया तुम्हें प्रतिपूर्ति नहीं करती है या कोई भी तुम्हें कोई सब्ज़ी नहीं भेजता है, तब भी तुम शिकायत करते हो। तुम्हारा पेट शिकायतों से भरा है, और इस वजह से तुम कभी-कभी सभाओं में नहीं जाते हो या परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते नहीं हो, तो लंबे समय तक तुम्हारे नकारात्मक हो जाने की संभावना हो जाती है। आज तुम्हारे साथ जो भी कुछ भी होता है उसका तुम्हारी संभावनाओं या भाग्य से कोई संबंध नहीं है; ये चीजें तब भी होती हैं जब तुम परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हो, मगर आज तुम उनका उत्तरदायित्व परमेश्वर पर डाल देते हो और यह कहने पर जोर देते हो कि परमेश्वर ने तुम्हें मार दिया है। परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास कितना है, क्या तुमने अपना जीवन सचमुच अर्पित किया है? यदि तुम लोगों ने अय्यूब के समान परीक्षणों का सामना किया होता, तो परमेश्वर का अनुसरण करने वाले तुम लोगों में से ऐसा कोई भी आज डटा नहीं रह पाता, तुम सभी लोग नीचे गिर जाते। और, निस्संदेह, तुम लोगों के और पतरस के बीच ज़मीन-आसमान का अंतर है। आज, यदि तुम लोगों की आधी संपत्ति जब्त कर ली जाए तो तुम लोग परमेश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करने की हिम्मत करोगे; यदि तुम्हारे बेटे या बेटी को तुम से ले लिया जाए, तो तुम चिल्लाते हुए सड़कों पर दौड़ेंगे कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है; यदि तुम्हारा जीवन किसी अंधी गली में पहुँच जाए, तो तुम यह पूछते हुए कि मैंने तुम्हें डराने के लिए शुरुआत में इतने सारे वचनों को क्यों कहा, कोशिश करोगे और इसे "परमेश्वर" से कहोगे? ऐसा कुछ नहीं है जिसे तुम लोग ऐसे समय में करने की हिम्मत नहीं करोगे। यह दर्शाता है कि तुम लोगों ने वास्तव में देखा नहीं है, और तुम लोगों की कोई वास्तविक कद काठी नहीं है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "अभ्यास (3)" से
क्या तू शैतान के प्रभाव में, शांति और आनन्द, और थोड़ा बहुत देह के सुकून के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट है? क्या तू सभी लोगों में सब से अधिक निम्न नहीं हैं? उन से ज़्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए अनुसरण नहीं किया: वे ऐसे लोग हैं जिन्होंने लालची इंसान की तरह माँस खाया और शैतान को प्रसन्न किया है। तू आशा करता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने से तुझे चुनौतियाँ और क्लेश, या थोड़ी बहुत कठिनाई विरासत में नहीं मिलेगी। तू हमेशा ऐसी चीज़ों का अनुसरण करता है जो निकम्मी हैं, और तू अपने जीवन में कोई मूल्य नहीं जोड़ता है, उसके बजाय तू अपने फिजूल के विचारों को सत्य के सामने रख देता है। तू कितना निकम्मा है! तू एक सुअर के समान जीता है-तुझ में, और सूअर और कुत्तों में क्या अन्तर है? क्या वे जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, और उसके बजाय शरीर से प्रेम करते हैं, सब के सब जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिन में आत्मा नहीं है चलती फिरती हुई लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच में कितने सारे वचन बोले गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच में केवल थोड़ा सा ही कार्य किया गया है? मैं ने तुम लोगों के बीच में कितनी सामग्रियों का प्रबन्ध किया है? तो फिर तूने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तेरे पास शिकायत करने के लिए क्या है? क्या यह वह मामला नहीं है कि तूने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तू देह के साथ बहुत अधिक प्रेम करता है? और क्या यह इसलिए नहीं है क्योंकि तेरे विचार बहुत ज़्यादा फिजूल हैं? क्या यह इसलिए नहीं है क्योंकि तू बहुत ही ज़्यादा मूर्ख हैं? यदि तू इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ है, तो क्या तू परमेश्वर को दोष देगा कि उसने तुझे नहीं बचाया? तू परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करने के योग्य होने के लिए अनुसरण करता है-अपनी सन्तानों के लिए कि वे बीमारी से आज़ाद हों, अपने पति के लिए कि उसके पास एक अच्छी नौकरी हो, अपने बेटे के लिए कि उसके पास एक अच्छी पत्नी हो, तेरी बेटी के लिए कि वह एक सज्जन पति ढूँढ़ पाए, अपने बैल और घोड़े के लिए कि वे अच्छे से जमीन की जुताई करें, और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छे मौसम के लिए कोशिश करता है। तू इन्हीं चीज़ों की खोज करता है। तेरा कार्य केवल सुकून के साथ जीवन बिताना है, क्योंकि तेरे परिवार में कोई दुर्घटना नहीं होती है, क्योंकि हवा तेरे पास से होकर गुज़र जाती है, क्योंकि धूल मिट्टी तेरे चेहरे को छूती नहीं है, क्योंकि तेरे परिवार की फसलें बाढ़ में बहती नहीं हैं, क्योंकि तू किसी भी विपत्ति से प्रभावित नहीं होता है, इसलिए कि तू परमेश्वर की बांहों में रहता है, इसलिए कि तू आरामदायक घोंसले में रहता है। तेरे जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा शरीर के पीछे पीछे चलता है-क्या तेरे पास एक हृदय है, क्या तेरे पास एक आत्मा है? क्या तू एक पशु नहीं हैं? बदले में बिना कुछ मांगते हुए मैं ने तुझे एक सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तू अनुसरण नहीं करता है। क्या तू उनमें से ��क है जो परमेश्वर पर विश्वास करता है? मैं ने तुझे वास्तविक मानवीय जीवन दिया है, फिर भी तू अनुसरण नहीं करता है। क्या तू कुत्ता और सुअर से अलग नहीं है? सूअर मनुष्य के जीवन का अनुसरण नहीं करते हैं, वे शुद्ध किए जाने का प्रयास नहीं करते हैं, और वे नहीं समझते हैं कि जीवन है क्या? प्रति दिन, जी भरकर खाने के बाद, वे बस सो जाते हैं। मैं ने तुझे सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तूने उसे प्राप्त नहीं किया है: तेरे हाथ खाली हैं। क्या तू इस जीवन में, सूअर के जीवन में, निरन्तर बने रहना चाहता है? ऐसे लोगों के ज़िन्दा रहने का क्या महत्व है? तेरा जीवन घृणित और नीच है, तू गन्दगी और व्यभिचार के मध्य रहता है, और तू किसी उद्देश्य का पीछा नहीं करता है; क्या तेरा जीवन सब से अधिक निम्न नहीं है? क्या तेरे पास परमेश्वर की ओर देखने की कठोरता है? यदि तू लगातार इस तरह अनुभव करता रहे, तो क्या तुझे शून्यता प्राप्त नहीं होगी?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान" से
आज मनुष्य देखता है कि परमेश्वर के केवल अनुग्रह, प्रेम और उसकी दया के साथ वह स्वयं को पूरी तरह से जान सकने में असमर्थ है, और वह मनुष्य के तत्व को तो जान ही नहीं सकता है। केवल परमेश्वर के शोधन और न्याय के द्वारा, केवल ऐसे शोधन के द्वारा तुम अपनी कमियों को जान सकते हो, और तुम जान सकते हो कि तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। अतः, मनुष्य का परमेश्वर के प्रति प्रेम परमेश्वर की ओर से आने वाले शोधन और न्याय की नींव पर आधारित होता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल पीड़ादायक परीक्षाओं का अनुभव करने के द्वारा ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो" से
तुम अपने अनुभवों में देखोगे कि वे जो अत्यधिक शुद्धिकरण तथा दर्द, और अधिक व्यवहार तथा अनुशासन सहते हैं, उनका परमेश्वर के प्रति गहरा प्रेम होता है, और उनके पास परमेश्वर का अधिक गहन एवं मर्मज्ञ ज्ञान होता है। ऐसे लोग जिन्होंने व्यवहार किए जाने का अनुभव नहीं किया है, उनके पास केवल सतही ज्ञान होता है, और वे केवल यह कह सकते हैं: "परमेश्वर बहुत अच्छा है, वह लोगों को अनुग्रह प्रदान करता है ताकि वे परमेश्वर में आनन्दित हो सकें"। यदि लोगों ने व्यवहार और अनुशासित किए जाने का अनुभव किया है, तो वे परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बारे में बोलने में समर्थ हैं। अतः मनुष्य में परमेश्वर का कार्य जितना ज़्यादा अद्भुत होता है, उतना ही ज़्यादा यह मूल्यवान एव ���हत्वपूर्ण होता है। यह तुम्हारे लिए जितना अधिक अभेद्य होता है और यह तुम्हारी अवधारणाओं के साथ जितना अधिक असंगत होता है, परमेश्वर का कार्य उतना ही अधिक तुम्हें जीतने में समर्थ होता है, तुम तक पहुँचता है और तुम्हें परिपूर्ण बना पाता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "पूर्ण बनाए जाने वालों को शुद्धिकरण से अवश्य गुज़रना चाहिए" से
क्या अब तुम लोग समझते हो कि परमेश्वर पर विश्वास करना क्या होता है? क्या संकेतों और चमत्कारों को देखना परमेश्वर पर विश्वास करना है? क्या यह स्वर्ग पर आरोहण करना है? परमेश्वर पर विश्वास आसान नहीं है। आज, इस प्रकार के धार्मिक अभ्यासों को निकाल दिया जाना चाहिए; परमेश्वर के चमत्कारों के प्रकटीकरण का अनुसरण करना, परमेश्वर की चंगाई और उसका दुष्टात्माओं को निकालना, परमेश्वर द्वारा शांति और प्रचुर अनुग्रह प्रदान किए जाने की तलाश करना, और देह के लिए संभावना और आराम प्राप्त करने की तलाश करना-ये धार्मिक अभ्यास हैं, और ऐसे धार्मिक अभ्यास विश्वास के अस्पष्ट और अमूर्त रूप हैं। आज, परमेश्वर में वास्तविक विश्वास क्या है? यह परमेश्वर के वचन को अपने जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना, और परमेश्वर का सच्चा प्यार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन से परमेश्वर को जानना है। स्पष्ट करने के लिए: यह परमेश्वर में विश्वास है जिसकी वजह से तुम परमरेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हो, उससे प्रेम कर सकते हो, और उस कर्तव्य को कर सकते हो जो एक परमेश्वर के प्राणी द्वारा की जानी चाहिए। यही परमेश्वर पर विश्वास करने का लक्ष्य है। तुम्हें परमेश्वर के प्रेम का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए है, या यह ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए कि परमेश्वर कितने आदर के योग्य हैं, कैसे अपने सृजन किए गए प्राणियों में परमेश्वर उद्धार का कार्य करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है-यह वह न्यूनतम है जो तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास में धारण करना चाहिए। परमेश्वर पर विश्वास मुख्यतः देह के जीवन से परमेश्वर से प्रेम करने वाले जीवन में बदलना है, प्राकृतिकता के भीतर जीवन से परमेश्वर के अस्तित्व के भीतर जीवन में बदलना है, यह शैतान के अधिकार क्षेत्र से बाहर आना और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में जीवन जीना है, यह परमेश्वर की आज्ञाकारिता को, और न कि देह की आज्ञाकारिता को, प्राप्त करने में समर्थ होना है, यह परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण हृदय प्राप्त करने की अनुमति देना है, परमेश्वर को तुम्हें पूर्ण बनाने और तुम्हें भ्रष्ट शैतानिक स्वभाव से मुक्त करने की अनुमति देना है। परमेश्वर में विश्वास मुख्यतः इस वजह से है ताकि परमेश्वर की सामर्थ्य और महिमा तुममें प्रकट हो सके, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा को पूर्ण कर सको, और परमेश्वर की योजना को संपन्न कर सको, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे सको। परमेश्वर पर विश्वास संकेतों और चमत्कारों को देखने के उद्देश्य से नहीं होना चाहिए, न ही यह तुम्हारी व्यक्तिगत देह के वास्ते होना चाहिए। यह परमेश्वर को जानने की तलाश के लिए, और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, और पतरस के समान, मृत्यु तक परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होने के लिए, होना चाहिए। यही वह सब है जो मुख्यतः प्राप्त करने के लिए है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के वचन के द्वारा सब कुछ प्राप्त हो जाता है" से
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परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण करना क्या है? अगर कोई केवल प्रभु के लिए मिशनरी (धर्म-प्रचार सम्बन्धी) काम करता है, तो क्या यह परमेश्वर की इच्छा का पालन करना है?
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परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण करना क्या है? अगर कोई केवल प्रभु के लिए मिशनरी (धर्म-प्रचार सम्बन्धी) काम करता है, तो क्या यह परमेश्वर की इच्छा का पालन करना है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"जो मुझ से, 'हे प्रभु! हे प्रभु!' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, 'हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?' तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, 'मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ
"तू परमेश्‍वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।
"यदि कोई मुझ से प्रेम रखेगा तो वह मेरे वचन को मानेगा … जो मुझ से प्रेम नहीं रखता, वह मेरे वचन नहीं मानता
"यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे …" (युहन्ना 8:31)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
इस वक्त पवित्र आत्मा जिस मार्ग को ��पनाता है वह परमेश्वर के वास्तविक वचन हैं। अतः उस मार्ग पर चलने के इच्छुक व्यक्ति को देहधारी परमेश्वर के वास्तविक वचनों का पालन करना चाहिए, और उन्हें खाना तथा पीना चाहिए। वह वचनों का कार्य कर रहा है, और सब कुछ उसके वचनों से कहा जाता है, और सब कुछ उसके वचनों, उसके वास्तविक वचन, पर स्थापित है। परमेश्वर का सत्य वचन। चाहे बात बिना संदेह परमेश्वर के देह-धारण की हो या उसे जानने की, हमें उसके वचनों पर ध्यान देने का अधिक प्रयास करना चाहिए। अन्यथा हम कुछ प्राप्त नहीं कर पाएंगे और हमारे पास कुछ शेष नहीं रहेगा। सिर्फ परमेश्वर को जान करके ही और उसके वचनों को खाने और पीने के आधार पर उसे संतुष्ट करके ही कोई व्यक्ति धीरे-धीरे उसके साथ उचित संबंध स्थापित कर सकता है। उसके वचनों को खाना और पीना तथा उन्हें अभ्यास में लाना ही परमेश्वर के साथ श्रेष्ठ सहयोग है, और यह अभ्यास ही परमेश्वर के जन होने की गवाही देगा। जब एक व्यक्ति परमेश्वर के वास्तविक वचनों को समझता है और उसके सार का पालन करने में सक्षम होता है, तो वह पवित्र आत्मा द्वारा दिखाए मार्ग पर जीवन जी रहा होता है और वह परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सिद्ध करने के सही मार्ग में प्रवेश कर चुका है। …
…………
परमेश्वर तुझे जो कार्यभार देता है यदि तू उसे स्वीकार कर पाता है, उसके वादे को स्वीकार कर पाता है, और पवित्र आत्मा के बताए मार्ग का अनुसरण कर पाता है, तो यह परमेश्वर की इच्छा का पालन करना है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वो वे लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं" से
प्रत्येक युग में, जब परमेश्वर इस संसार में कार्य करता है तब वह मनुष्य को कुछ वचन प्रदान करता है, मनुष्य को कुछ सच्चाईयां बताता है। ये सच्चाईयां ऐसे मार्ग के रूप में कार्य करती हैं जिसके मुताबिक मनुष्य को चलना है, ऐसा मार्ग जिसमें मनुष्य को चलना है, ऐसा मार्ग जो मनुष्य को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए सक्षम करता है, और ऐसा मार्ग जिसका मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए और अपने जीवन में और अपने जीवन की यात्राओं के दौरान उसके मुताबिक चलना चाहिए। ये वचन जो परमेश्वर से आते हैं उनके मुताबिक ही मनुष्य को चलना चाहिए, और उनके मुताबिक चलना ही जीवन पाना है। यदि कोई व्यक्ति उनके मुताबिक नहीं चलता है, उन्हें अभ्यास में नहीं लाता है, और अपने जीवन में परमेश्वर के वचनों को नहीं जीता है, तो वह व्यक्ति सत्य को अमल में नहीं ला रहा है। और यदि वे सत्य को अमल में नहीं ला रहे हैं, तो वे परमेश्वर का भय नहीं मान रहे हैं और बुराई से दूर नहीं रह रहे हैं, और न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं। यदि कोई परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता है, तो वे परमेश्वर की प्रशंसा को प्राप्त नहीं कर सकते हैं; इस प्रकार के व्यक्ति के पास कोई परिणाम नहीं होता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के स्वभाव और उसके कार्य के परिणाम को कैसे जानें" से
परमेश्वर के मार्ग पर चलना सतह पर नियमों का अवलोकन करने के विषय में नहीं है। इसके बजाय, इसका अर्थ यह है कि जब तेरा सामना किसी मामले से होता है, तो सबसे पहले, तू इसे ऐसी परिस्थिति के रूप में देख जिसका प्रबंध परमेश्वर के द्वारा किया गया है, ऐसी ज़िम्मेदारी के रूप में देख जिसे उसके द्वारा तुझे प्रदान किया गया है, या किसी ऐसी चीज़ के रूप में देखें जिसे उसने तुझे सौंपा है, और यह कि जब तू इसका सामना कर रहा है, तो तुझे इसे परमेश्वर से आई किसी परीक्षा के रूप में भी देखना चाहिए। इस मामले का सामना करते समय, तेरे पास एक मानक अवश्य होना चाहिए, तुझे सोचना होगा कि यह परमेश्वर की ओर से आया है, तुझे इसके विषय में सोचना होगा कि किस प्रकार इस मामले से कुछ इस तरह निपटें कि तू अपनी ज़िम्मेदारी को निभा सके, और परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य रहे; इसे कैसे करे और परमेश्वर को क्रोधित न करे, या उसके स्वभाव को ठेस न पहुंचाए।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के स्वभाव और उसके कार्य के परिणाम को कैसे जानें" से
यदि आप जागरुकता के साथ परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, जागरुकता के साथ सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं, जागरुकता के साथ स्वयं का त्याग कर सकते हैं, अपने विचारों को छोड़ सकते हैं, और परमेश्वर की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी और विचारशील बन सकते हैं; यदि आप ये सभी चीज़ें जागरुकता के साथ कर पाते हैं तब यह सत्य को सटीक रूप से अभ्यास में लाना है, सत्य को असल में अभ्यास में लाने लाना है…
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "केवल सत्य की खोज करके ही आप अपने स्वभाव में परिवर्तन ला सकते हैं" से
परमेश्वर के वचन को समझो और उसे अभ्यास में लाओ। क्रियाओं और कर्मों में उच्च सिद्धांत वाले बनो; यह नियम में बंधना या बेमन से बस दिखावे के लिए ऐसा करना नहीं है। बल्कि, यह एक सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के वचन में जीवन व्यतीत करना है। केवल इस प्रकार का अभ्यास ही परमेश्वर को संतुष्ट करता है। कोई भी प्रथा जो परमेश्वर को प्रसन्न करती हो कोई नियम नहीं है बल्कि सत्य का अभ्यास है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर पर विश्वास करना वास्तविकता पर केंद्रित होना चाहिए, न कि धार्मिक रीति-रिवाजों पर" से
जब कार्य के बारे में बात की जाती है, तो मनुष्य का मानना है कि परमेश्वर के लिए इधर-उधर भागना, सभी जगहों पर प्रचार करना और परमेश्वर के लिए व्यय करना कार्य है। यद्यपि यह विश्वास सही है, किन्तु यह अत्यधिक एक-तरफा है; परमेश्वर आदमी से जो कहता है वह परमेश्वर के लिए केवल इधर-उधर यात्रा करना ही नहीं है; यह आत्मा के भीतर सेवकाई और आपूर्ति अधिक है। … कार्य परमेश्वर के लिए इधर-उधर चलने को संदर्भित नहीं करता है; यह इस बात को संदर्भित करता है मनुष्य का जीवन और मनुष्य जो जीवन बिताता है वे परमेश्वर के आनंद के लिए हैं या नहीं। कार्य परमेश्वर के प्रति गवाही देने और मनुष्य के प्रति सेवकाई के लिए मनुष्य द्वारा परमेश्वर के प्रति अपनी विश्वसनीयता और परमेश्वर के बारे में उनके ज्ञान के उपयोग को संदर्भित करता है। यह मनुष्य का उत्तरदायित्व है और वह है जो सभी लोगों को महसूस करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, तुम लोगों का प्रवेश तुम लोगों का कार्य है; तुम लोग परमेश्वर के लिए अपने कार्य के दौरान प्रवेश करने का प्रयास कर रहे हो। परमेश्वर का अनुभव करना न केवल उसके वचन को खाने और पीने में सक्षम होना है; बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण है, कि तुम लोगों को परमेश्वर की गवाही देने, परमेश्वर की सेवा करने, और मनुष्य की सेवकाई और आपूर्ति करने में सक्षम अवश्य होना चाहिए। यह कार्य है, और तुम लोगों का प्रवेश भी है; इसे ही हर व्यक्ति को निष्पादित करना चाहिए। ऐसे कई लोग हैं जो केवल परमेश्वर के लिए इधर-उधर यात्रा करने, और सभी जगहों पर उपदेश देने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, फिर भी अपने व्यक्तिगत अनुभव को अनदेखा करते हैं और आध्यात्मिक जीवन में अपने प्रवेश की उपेक्षा करते हैं। यही कारण है कि परमेश्वर की सेवा करने वाले लोग परमेश्वर का विरोध करने वाले बन जाते हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "कार्य और प्रवेश (2)" से
कल्पना कर कि तू परमेश्वर के लिए काम कर सकता है, फिर भी तू परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानता है, और सचमुच में परमेश्वर से प्रेम करने में असमर्थ है। इस रीत�� से, तूने न केवल परमेश्वर के एक प्राणी के अपने कर्तव्य को नहीं निभाया होगा, बल्कि तू परमेश्वर के द्वारा निन्दित भी किया जाएगा, क्योंकि तू ऐसा व्यक्ति है जो सत्य को धारण नहीं करता है, जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने में असमर्थ है, और जो परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारी है। तू केवल परमेश्वर के लिए कार्य करने के विषय में परवाह करता है, और सत्य को अभ्यास में लाने, या स्वयं को जानने के विषय में कोई परवाह नहीं करता है। तू सृष्टिकर्ता को समझता एवं जानता नहीं है, और सृष्टिकर्ता के प्रेम या उसकी आज्ञा का पालन नहीं करता है। तू ऐसा व्यक्ति है जो सहज रूप से परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारी है, और इस प्रकार ऐसे लोग सृष्टिकर्ता के प्रिय नहीं है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" से
अधिकांश लोग जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं वे केवल इस बात को ज्यादा महत्व देते हैं कि आशीषों को किस प्रकार प्राप्त किया जाए या आपदा से कैसे बचा जाए। परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन का उल्लेख करने पर वे चुपचाप हो जाते हैं और उनकी रुचि समाप्त हो जाती है। उन्हें लगता है कि वे इस प्रकार के कुछ उबाऊ प्रश्नों को जानने से वे अपने जीवन में बढ़ नहीं सकते हैं या किसी भी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकते हैं, और इसलिए हालांकि वे परमेश्वर के प्रबंधन के संदेश के बारे में सुन चुके होते हैं, वे उन्हें बहुत ही लापरवाही से लेते हैं। उन्हें वे इतने मूल्यवान नहीं लगते कि उन्हें स्वीकारा जाए और वे अपने जीवन का अंग तो उन्हें बिल्कुल नहीं लगते। ऐसे लोगों के पास परमेश्वर का अनुसरण करने का बहुत ही साधारण लक्ष्य होता हैः आशीषें प्राप्त करने का और वे इस लक्ष्य से मतलब न रखने वाली किसी भी बात पर ध्यान देने में बहुत ही आलस दिखाते हैं। उनके लिए, करने का अर्थ आशीषें प्राप्त करने के लिये परमेश्वर पर विश्वास करना सबसे तर्कसंगत लक्ष्य और उनके विश्वास का आधारभूत मूल्य है। और जो चीज़ें इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता प्रदान नहीं करतीं वे उनसे प्रभावित नहीं होते हैं। आज जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं उनके साथ ऐसी ही समस्या है। उनके लक्ष्य और प्रेरणा तर्कसंगत दिखाई देते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर पर विश्वास समय ही, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते भी हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित भी होते हैं और अपने कर्तव्य को भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी लगा देते हैं, परिवार और भविष्य को त्याग देते हैं, और यहां तक कि सालों अपने घर से दूर व्यस्त रहते हैं। अपने परम लक्ष्य के लिये, वे अपनी रूचियों को बदल डालते हैं, अपने जीवन के दृष्टिकोण को परिवर्तित कर देते हैं, और यहां तक कि अपनी खोज की दिशा तक को बदल देते हैं, फिर भी वे परमेश्वर पर अपने विश्वास के लक्ष्य को नहीं बदल सकते। वे अपने ही आदर्शों के लिये भाग-दौड़ करते हैं; चाहे मार्ग कितना ही दूर हो, और मार्ग में कितनी भी कठिनाइयां और अवरोध क्यों न आएं, वे डटे रहते हैं और मृत्यु के सामने निडर खड़े रहते हैं। इस प्रकार से अपने आप को समर्पित बनाए रखने के लिए उन्हें किस बात से शक्ति प्राप्त होती है? क्या यह उनका विवेक है? क्या यह उनका महान और कुलीन चरित्र है? क्या यह उनका अटल इरादा है जो उन्हें दुष्ट शक्तियों से अंत तक युद्ध करते रहने की प्रेरणा देता है? क्या यह उनका विश्वास है जिसमें वे बिना प्रतिफल के परमेश्वर की गवाही देते हैं? क्या यह उनकी वफादारी है जिसके लिए वे परमेश्वर की इच्छा को प्राप्त करने के लिए सब कुछ देने के लिए भी तैयार रहते हैं? या यह उनकी भक्ति है जिसमें वे हमेशा व्यक्तिगत असाधारण मांगों को त्याग देते हैं? उन लोगों के लिये जिन्होंने कभी भी परमेश्वर के प्रबंधन को जानने के लिए कभी भी इतना कुछ नहीं दिया, यह किसी आश्चर्य से कम नहीं! कुछ देर के लिये आइए इस पर चर्चा न करें कि इन लोगों ने कितना कुछ दिया है। फिर भी उनका व्यवहार इस योग्य है कि हम उसका विश्लेषण करें। उन लाभों के अतिरिक्त जो उनके साथ इतनी निकटतासे जुड़े हैं, क्या इन लोगों के लिए जो कभी भी परमेश्वर को नहीं समझ पाते हैं, उसे इतना कुछ देने का क्या कोई अन्य कारण हो सकता है? इसमें, हम एक पहले से ही अज्ञात समस्या को देखते हैं: मनुष्य का परमेश्वर के साथ सम्बन्ध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का सम्बन्ध है। सीधे-सीधे, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के सम्बन्ध के समान है। कर्मचारी नियोक्ता के द्वारा पुरस्कार प्राप्त करने के लिए ही कार्य करता है। इस प्रकार के सम्बन्ध में, कोई स्नेह नहीं होता है, केवल एक सौदा होता है; प्रेम करने और प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होता है; कोई आपसी समझ नहीं होती केवल अधीनता और धोखा होता है; कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक खाई जो कभी भी भरी नहीं जा सकती। जब चीज़ें इस बिन्दु तक आ जाती हैं, तो कौन इस प्रकार की प्रवृत्ति को बदलने में सक्षम है? और कितने लोग इसे वास्तव में समझने के योग्य हैं कि यह सम्बन्ध कितना निराशजनक बन चुका है? मैं मानता हूं कि जब लोग आशीषित होने के आनन्द में अपने आप को लगा देते हैं, तो कोई भी यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का सम्बन्ध कितना ही शर्मनाक और भद्दा होगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल परमेश्वर के प्रबंधन के मध्य ही मनुष्य बचाया जा सकता है" से
कुछ लोग कहते हैं, "पौलुस ने अत्यधिक मात्रा में काम किया था, और उसने कलीसियाओं के लिए बड़े बोझ को अपने कंधों पर उठाया था और उनके लिए इतना अधिक योगदान दिया था। पौलुस की तेरह पत्रियों ने दो हज़ार वर्षों के अनुग्रह के युग को बनाए रखा था, और वे मात्र चारों सुसमाचारों के बाद दूसरे नम्बर पर आते हैं। कौन उसके साथ तुलना कर सकता है? कोई भी यूहन्ना के प्रकाशित वाक्य के गूढ़ अर्थ को समझ नहीं सकता है, जबकि पौलुस की पत्रियां जीवन प्रदान करती हैं, और वह कार्य जो उसने किया था वह कलीसियाओं के हित के लिए था। और कौन ऐसी चीज़ों को हासिल कर सकता था? और पतरस ने क्या काम किया था?" जब मनुष्य अन्य लोगों को मापता है, तो यह उनके योगदान के अनुसार होता है। जब परमेश्वर मनुष्य को मापता है, तो यह मनुष्य के स्वभाव के अनुसार होता है। उन लोगों के मध्य जो जीवन की तलाश करते हैं, पौलुस ऐसा व्यक्ति था जो अपने स्वयं के सार को नहीं जानता था, जो परमेश्वर के विरूद्ध था। और इस प्रकार, वह ऐसा व्यक्ति था जो विस्तृत अनुभवों से होकर गुज़रा था, और ऐसा व्यक्ति था जो सत्य को अभ्यास में नहीं लाया था। पतरस अलग था। वह परमेश्वर के एक जीव के रूप में अपनी अपूर्णताओं, कमज़ोरियों, एवं अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानता था, और इस प्रकार उसके पास अभ्यास का एक मार्ग था कि उसके माध्यम से अपने स्वभाव को बदल दे; वह उन में से एक नहीं था जिसके पास केवल सिद्धान्त ही था किन्तु जो कोई वास्तविकता धारण नहीं करता था। ऐसे लोग जो परिवर्तित होते हैं वे नए लोग हैं जिन्हें बचाया गया है, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करने के योग्य थे। ऐसे लोग जो नहीं बदलते हैं वे उनसे सम्बन्धित हैं जो स्वभाविक रूप से गुज़रे ज़माने की बेकार चीज़ें हैं; वे ऐसे लोग हैं जिन्हें बचाया नहीं गया है, अर्थात्, ऐसे लोग जिनसे परमेश्वर के द्वारा घृणा की गई है और जिन्हें ठुकरा दिया गया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनका कार्य कितना महान है क्योंकि परमेश्वर के द्वारा उनका स्मरणोत्सव नहीं मनाया जाएगा। जब तू इसकी तुलना अपने स्वयं के अनुसरण से करता है, तो तू अन्ततः पतरस या पौलुस के समान उसी किस्म का व्यक्ति है या न��ीं यह स्वतः ही प्रमाणित होना चाहिए। यदि जो कुछ तू खोजता है उसमें अभी भी कोई सच्चाई नहीं है, और यदि तू आज भी पौलुस के समान अभिमानी एवं गुस्ताख हैं, और अभी भी उसके समान चतुराई से बोलते हुए स्वयं की ख्याति को बढ़ाने वाले व्यक्ति हैं, तो तू बिना किसी सन्देह के एक पतित व्यक्ति है जो असफल हो जाता है। यदि तू पतरस के समान ही कोशिश करता है, यदि तू अभ्यास एवं सच्चे बदलावों की कोशिश करता है, और अभिमानी या हठी नहीं है, किन्तु अपने कर्तव्य को निभाने का प्रयास करता है, तो तू परमेश्वर के ऐसा प्राणी होगा जो विजय हासिल कर सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" से
मुझे तुम में से ऐसे लोगों से कोई सहानुभूति नहीं होगी जो बरसों कष्ट झेलते हैं और मेहनत करते हैं, लेकिन उनके पास दिखाने को कुछ नहीं होता। इसके विपरीत, जो लोग मेरी माँगें पूरी नहीं करते, मैं ऐसे लोगों पुरस्कृत नहीं, दंडित करता हूँ, सहानुभूति तो बिल्कुल नहीं रखता। शायद तुम्हारा ख़्याल है कि चूँकि बरसों अनुयायी बने रहकर तुम लोगों ने बहुत मेहनत कर ली है, भले ही वह कैसी भी रही हो, सेवक होने के नाते, परमेश्वर के दरबार में कम से कम तुम लोगों को एक कटोरी चावल तो मिल ही जाएंगे। मेरा तो मानना है कि तुम में से अधिकांश की सोच यही है क्योंकि अब तक तुम लोगों की सोच रही रही है कि किसी को अपना फायदा मत उठाने दो, लेकिन दूसरों से ज़रूर लाभ उठा लो। इसलिए मैं एक बात बहुत ही गंभीरता से कहता हूँ: मुझे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है कि तुम्हारी मेहनत कितनी सराहनीय है, तुम्हारी योग्यताएं कितनी प्रभावशाली हैं, तुम कितने बारीकी से मेरा अनुसरण कर रहे हो, तुम कितने प्रसिद्ध हो, या तुम कितने उन्नत प्रवृत्ति के हो; जब तक तुमने मेरी अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया है, तब तक तुम मेरी प्रशंसा प्राप्त नहीं कर पाओगे। जितनी जल्दी हो सके, तुम अपने विचारों और गणनाओं को ख़ारिज कर दो, और मेरी अपेक्षाओं को गंभीरता से लेना शुरु कर दो। वरना मैं अपना काम समाप्त करने के लिये सारे लोगों को भस्म कर दूँगा, और ज़्यादा से ज़्यादा मैं अपने कार्य के वर्षों और पीड़ाओं को शून्य में बदल दूँगा, क्योंकि मैं अगले युग में, अपने शत्रुओं और शैतान की तर्ज़ पर बुराई में लिप्त लोगों को अपने राज्य में नहीं ला सकता।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "उल्लंघन मनुष्य को नरक में ले जाएगा" से
तू कहता है कि तूने हमेशा परमेश्वर का अनुसरण करते हुए दुख उठाया है, यह कि तूने हमेशा हर परिस्थितियों में उसका अनुसरण किया है, और तूने उसके साथ अपना अच्छा और खराब समय बिताया है, किन्तु तूने परमेश्वर के द्वारा बोले गए वचनों के अनुसार जीवन नहीं बिताया है; तू हर दिन उसके पीछे पीछे भागना चाहता है, और तूने कभी भी एक अर्थपूर्ण जीवन बिताने के बारे में नहीं सोचा है। तू कहता है कि, किसी भी सूरत में, तू विश्वास करता है कि परमेश्वर धर्मी है: तूने उसके लिए दुख उठाया है, तू उसके लिए यहाँ वहाँ भागते रहता है, और तूने उसके लिए अपने आपको समर्पित किया है, और तूने कड़ी मेहनत की है इसके बावजूद तुझे कोई पहचान नहीं मिली है; वह निश्चय ही तुझे स्मरण रखता है। यह सच है कि परमेश्वर धर्मी है, फिर भी इस धार्मिकता को किसी अशुद्धता के द्वारा प्राप्त नहीं किया गया है: इस में कोई मानवीय इच्छा नहीं है, और इसे शरीर, या मानवीय सौदों के द्वारा कलंकित नहीं किया जा सकता है। वे सभी जो विद्रोही हैं और विरोध में हैं, और जो उसके मार्ग की सम्मति में नहीं हैं, उन्हें दण्डित किया जाएगा; किसी को भी क्षमा नहीं किया गया है, और किसी को भी बख्शा नहीं गया है! … तेरे जैसे इंसान के लिए मेरा धर्मी स्वभाव एक प्रकार से ताड़ना और न्याय है, यह एक प्रकार से सच्चा प्रतिफल है, और यह बुरा काम करनेवालों के लिए उचित दण्ड है; वे सभी जो मेरे मार्गों में नहीं चलते हैं उन्हें निश्चय ही दण्ड दिया जाएगा, भले ही वे अंत तक अनुसरण करते रहें। यह परमेश्वर की धार्मिकता है। … धार्मिकता ही पवित्रता है, और वह एक स्वभाव है जो मनुष्य के अपराध को सहन नहीं कर सकता है, और वह सब कुछ जो अशुद्ध है और जो परिवर्तित नहीं हुआ है वह परमेश्वर की घृणा का पात्र है। परमेश्वर का धर्मी स्वभाव एक व्यवस्था नहीं है, किन्तु प्रशासनिक आज्ञा है: यह राज्य के भीतर एक प्रशासनिक आज्ञा है, और यह प्रशासनिक आज्ञा उस व्यक्ति के लिए सच्चा दण्ड है जिसके पास सत्य नहीं है और जो परिवर्तित नहीं हुआ है, और उद्धार की कोई गंजाइश नहीं है। क्योंकि जब प्रत्येक मनुष्य को प्रकृति के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है, तो अच्छे मनुष्य को ईनाम दिया जाएगा और बुरे मनुष्य को दण्ड दिया जाएगा। यह तब होगा जब मनुष्य की नियति को स्पष्ट किया जाएगा, यह वह समय है जब उद्धार का कार्य समाप्त हो जाएगा, मनुष्य के उद्धार का कार्य आगे से नहीं किया जाएगा, और उन में से हर को बदला दिया जाएगा जो बुराई करते हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान" से
कुछ लोग यह कहते हुए समाप्त करते हैं, "मैं ने तेरे लिए इतना अधिक कार्य किया है, और हालाँकि उत्सव मनाने योग्य उपलब्धियां तो शायद नहीं हैं, फिर भी मैं अपने प्रयासों में अब भी परिश्रमी हूँ। क्या तू बस मुझे स्वर्ग में प्रवेश करने नहीं दे सकता है ताकि मैं जीवन के फल को खाऊं?" तुझे जानना होगा कि मैं किस प्रकार के लोगों की इच्छा करता हूँ; ऐसे लोग जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई है, ऐसे लोग जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को गंदा करने की अनुमति नहीं दी गई है। हालाँकि तूने शायद अधिक कार्य किया है, और कई सालों तक कार्य किया है, फिर भी अन्त में तू दुखदाई रूप से मैला है—यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय है कि तू मेरे राज्य में प्रवेश करने की कामना करता है! संसार की नींव से लेकर आज तक, मैं ने कभी भी उन लोगों को अपने राज्य के लिए आसान मार्ग का प्रस्ताव नहीं दिया है जो अनुग्रह पाने के लिए मेरी खुशामद करते हैं। यह स्वर्गीय नियम है, और इसे कोई तोड़ नहीं सकता है! तुझे जीवन की खोज करनी ही होगी। आज, ऐसे लोग जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे पतरस के ही समान हैं: वे ऐसे लोग हैं जो अपने स्वयं के स्वभाव में परिवर्तनों की कोशिश करते हैं, और वे परमेश्वर के लिए गवाही देने, और परमेश्वर के प्राणी के रुप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार हैं। केवल ऐसे ही लोगों को सिद्ध बनाया जाएगा। यदि तू केवल प्रतिफलों की ओर ही देखता है, और अपने स्वयं के जीवन स्वभाव को परिवर्तित करने की कोशिश नहीं करता है, तो तेरे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—और यह एक अटल सत्य है!
"वचन देह में प्रकट होता है" से "सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" से अनुशंसित:पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान
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सृष्टिकर्ता के कथनों की अद्वितीय रीति और गुण सृष्टिकर्ता के अधिकार और अद्वितीय पहचान का एक प्रतीक हैं
परमेश्वर की आशीषें
1) (उत्पत्ति 17:4-6) "देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिए तू जातियों के समूह का मूलपिता हो जाएगा। इसलिए अब से तेरा नाम अब्राम न रहेगा परन्तु तेरा नाम अब्राहम होगा क्योंकि मैं ने तुझे जातियों के समूह का मूलपिता ठहरा दिया है। मैं तुझे अत्यन्त फलवन्त करूँग, और तुझ को जाति जाति का मूल बना दूँगा, और तेरे वंश में राजा उत्पन्न होंगे।
2) (उत्पत्ति 18:18-19) अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी। क्योंकि मैं जानता हूँ, कि वह अपने पुत्रों और परिवार को जो उसके पीछे रह जाएँगे आज्ञा देगा कि वे यहोवा के मार्गों में अटल बने रहें, और धर्म और न्याय करते रहें; इसलिए कि जो कुछ यहोवा ने अब्राहम के विषय में कहा है उसे पूरा करें।"
3) (उत्पत्ति 22:16-18 ) ".... कि मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ कि तू ने जो यह काम किया है कि अपने पुत्र, वरन अपने एकलौते पुत्र को भी, नहीं रख छोड़ा; इस कारण मैं निश्चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान अनगिनित करूँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा; और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगीः क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।"
4) (अय्यूब 42:12) यहोवा ने अय्यूब के बाद के दिनों में उसके पहले के दिनों से अधिक आशीष दी; और उसके चौदह हज़ार भेड़ बकरियाँ, छः हज़ार ऊँट, हज़ार जोड़ी बैल, और हज़ार गदहियाँ हो गईं।
सृष्टिकर्ता के कथनों की अद्वितीय रीति और गुण सृष्टिकर्ता के अधिकार और अद्वितीय पहचान का एक प्रतीक हैं
बहुत से लोग परमेश्वर की आशीषों को ढूँढ़ना, और पाना चाहते हैं, परन्तु हर कोई उसे प्राप्त नहीं कर सकता है, क्योंकि परमेश्वर के पास उसके स्वयं के सिद्धांत हैं, और वह अपने तरीके से मनुष्यों को आशीष देता है। वे प्रतिज्ञाएँ जो परमेश्वर मनुष्य से करता है, और अनुग्रह की वह मात्रा जो वह मनुष्य को देता है, वे मनुष्यों के विचारों और कार्यों के आधार पर बाँटे जाते हैं। और इस प्रकार परमेश्वर की आशीषों के द्वारा क्या प्रदर्शित होता है? वे हमें क्या बताते हैं? इस बिन्दु पर, इस वादविवाद को दरकिनार करें कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को आशीष देता है, या मनुष्यों को आशीष देने के लिए परमेश्वर के सिद्धांत क्या हैं। उसके बजाए, आईए हम परमेश्वर के अधिकार को जानने के उद्देश्य के साथ, और परमेश्वर के अधिकार को जानने के दृष्टिकोण से मनुष्य के विषय में परमेश्वर की आशीष को देखें।
ऊपर दिए गए पवित्र शास्त्र के सभी चार अंश मनुष्य के विषय में परमेश्वर की आशीष के बारे में लिखित दस्तावेज़ हैं। वे परमेश्वर की आशीषों के प्राप्तकर्ताओं के बारे में, जैसे अब्राहमऔर अय्यूब, साथ ही साथ उन कारणों के बारे में भी विस्तृत विवरण देते हैं कि परमेश्वर क्यों अपनी आशीषों को प्रदान करता है, और इसके विषय में कि इन आशीषों में क्या शामिल था। परमेश्वर के कथनों का अन्दाज़ और ढंग, और वह यथार्थ दृष्टिकोण और स्थिति जिसके तहत उसने कहा, लोगों को उसकी प्रशंसा करने की स्वीकृति देता है जो आशीषों को देता है, और ऐसी आशीषों को पानेवाले बिलकुल ही अलग पहचान, हैसियत और हस्ती के थे। इन बोले गए वचनों का अन्दाज़ और ढंग, और वह स्थिति जिसके तहत वे बोले गए थे, परमेश्वर के लिए अद्वितीय हैं, जो सृष्टिकर्ता की पहचान को धारण किया हुए हैं। उसके पास अधिकार और सामर्थ है, साथ ही साथ सृष्टिकर्ता का सम्मान, और गौरव भी जो किसी मनुष्य के सन्देह को बर्दाश्त नहीं सकता है।
पहले आओ हम उत्पत्ति 17:4-6 को देखें: "देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिए तू जातियों के समूह का मूलपिता हो जाएगा। इसलिए अब से तेरा नाम अब्राम न रहेगा परन्तु तेरा नाम अब्राहम होगा क्योंकि मैं ने तुझे जातियों के समूह का मूलपिता ठहरा दिया है। मैं तुझे अत्यन्त फलवन्त करूँग, और तुझ को जाति जाति का मूल बना दूँगा, और तेरे वंश में राजा उत्पन्न होंगे।" यह वचन वह वाचा थी जो परमेश्वर ने अब्राहम के साथ बाँधी थी, साथ ही साथ परमेश्वर के द्वारा अब्राहम को आशीष देने की वाचा भी थीः परमेश्वर अब्राहम को जातियों का पिता बनाएगा, और उसे बहुत ही अधिक फलवंत करेगा, और उससे अनेक जातियाँ बनाएगा, और उसके वंश में राजा पैदा होंगे। क्या तुम इन वचनों में परमेश्वर के अधिकार को देखते हो? और ऐसे अधिकार को कैसे देखते हो? तुम परमेश्वर के अधिकार की हस्ती के किस पहलु को देखते हो? इन वचनों को नज़दीक से पढ़ने से, यह पता करना कठिन नहीं है कि परमेश्वर का अधिकार और पहचान परमेश्वर के कथनों में स्पष्टता से प्रकाशित है। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर ने कहा "देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिए तू.... मैं ने तुझे ठहरा दिया .... मैं तुझे बनाऊँगा" जैसे वाक्यांश "इसलिए तू" और "मैं करूँगा," जिसके वचन परमेश्वर की पहचान और अधिकार के दृढ़ निश्चय को लिए हुए हैं, और एक मायने में, सृष्टिकर्ता की विश्वासयोग्यता का संकेत है; दूसरे मायने में, वे परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किए गए विशिष्ट वचन हैं, जिनमें सृष्टिकर्ता की पहचान है—साथ ही साथ रूढ़िगत शब्दावली का एक भाग भी है। यदि कोई कहता है कि वे आशा करते हैं कि एक फलाना व्यक्ति बहुतायत से फलवंत होगा, और उससे जातियाँ उत्पन्न होंगी, और उसके वंश में राजा पैदा होंगे, तब निःसन्देह यह एक प्रकार की अभिलाषा है, और यह आशीष की प्रतिज्ञा नहीं है। और इस प्रकार, यह कहने की लोगों की हिम्मत नहीं होगी, "कि मैं तुम्हें ऐसा बनाऊँगा, और तुम ऐसे हो ...," क्योंकि वे जानते हैं कि उनके पास ऐसी सामर्थ नहीं है; यह ��नके ऊपर निर्भर नहीं है, और भले ही वे ऐसी बातें कहें, उनके शब्द खोखले और बेतुके होंगे, जो उनकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के द्वारा उकसाए गए होंगे। यदि वे महसूस करें कि वे अपनी अभिलाषाओं को पूरा नहीं कर सकते हैं तो क्या किसी में हिम्मत है कि ऐसे विशाल अन्दाज़ में बात करे? हर कोई अपने वंशों के लिए अभिलाषा करता है, और यह आशा करता है कि वे दूसरों से आगे बढ़ जाएँगे और बड़ी सफलता का आनंद उठाएँगे। उन में से कोई महाराजा बन जाए तो उसके लिए क्या ही सौभाग्य की बात होगी! यदि कोई एक हाकिम बन जाए तो अच्छा होगा, वह भी - जब तक वे एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। यह सब मनुष्य की अभिलाषाएँ हैं, परन्तु लोग केवल अपने वंशों के ऊपर आशीषों की अभिलाषा कर सकते हैं, और किसी भी प्रतिज्ञा को पूर्ण और सच्चा साबित नहीं कर सकते हैं। अपने हृदयों में, हर कोई जानता है कि उसके पास ऐसी चीज़ों को प्राप्त करने के लिए सामर्थ नहीं है, क्योंकि उनका सब कुछ उनके नियन्त्रण से बाहर है, और इस प्रकार वे कैसे दूसरों की तक़दीर का फैसला कर सकते हैं? परमेश्वर क्यों ऐसे वचनों को कह सकता है उसका कारण यह है क्योंकि परमेश्वर के पास ऐसा अधिकार है, और सभी प्रतिज्ञाएँ जो उसने मनुष्य से की हैं वह उन्हें पूर्ण और साकार करने, और सारी आशीषें जिन्हें वह मनुष्य को देता है उन्हें उन तक पहुँचाने में सक्षम है। मनुष्य परमेश्वर के द्वारा सृजा गया था, और किसी को बहुतायत से फलवंत करना परमेश्वर के लिए बच्चों का खेल है; किसी के वंश को समृद्ध करने के लिए सिर्फ उसके एक वचन की आवश्यकता होगी। उसे अपने लिए ऐसे कार्य करने हेतु पसीना बहाने, या अपने मस्तिष्क की माथापच्ची करने या उसके साथ अपने आप को गठानों में बाँधने की कभी आवश्यकता नहीं होगी; यह परमेश्वर की ही सामर्थ, और परमेश्वर का ही अधिकार है।
उत्पत्ति 18:18 में "अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी" इसे पढ़ने के बाद, क्या तुम लोग परमेश्वर के अधिकार को महसूस सकते हो। क्या तुम सब सृष्टिकर्ता की असाधारणता का एहसास कर सकते हो? क्या तुम सब सृष्टिकर्ता की सर्वोच्चता का एहसास कर सकते हो? परमेश्वर के वचन निश्चित हो। परमेश्वर सफलता में अपने आत्मविश्वास के कारण, या सफलता के प्रदर्शन के लिए इन वचनों को नहीं कहता है; इसके बजाए, वे परमेश्वर के कथनों के अधिकार के प्रमाण हैं, और एक आज्ञा है जो परमेश्वर के वचन को पूरा करते हैं। यहाँ पर दो प्रकटीकरण हैं जिन के ऊपर तुम लोगों को ध्यान देना चाहिए। जब परमेश्वर ने कहा, "अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी" तो क्या इन वचनों में अनिश्चितता का कोई तत्व है? क्या चिंता की कोई बात है? क्या इस में भय की कोई बात है? परमेश्वर के द्वारा बोले गए वचनों में "निश्चय होगा" और "होगा" जैसे शब्दों के कारण, इन तत्वों ने, जो मनुष्यों के लिए विशिष्ट हैं और अक्सर उन में प्रदर्शित होते हैं, सृष्टिकर्ता से कभी कोई रिश्ता नहीं बनाया है। किसी के पास यह हिम्मत नहीं होगी कि किसी को शुभकामना देते समय इन शब्दों का इस्तेमाल करे, किसी के पास यह हिम्मत नहीं होगी कि ऐसी निश्चितता के साथ किसी दूसरे को एक महान और सामर्थी जाति बनने की आशीष दे, या प्रतिज्ञा करे कि पृथ्वी की सारी जातियाँ उस में आशीष पाएँगी। परमेश्वर के वचन जितने अधिक निश्चित होंगे, उतने ही अधिक वे किसी चीज़ को साबित करेंगे - और वह कोई चीज़ क्या है? वे साबित करेंगे कि परमेश्वर के पास ऐसा अधिकार है, कि उसका अधिकार इन चीज़ों को पूरा कर सकता है, और उनका पूरा होना अनिवार्य है। परमेश्वर अपने हृदय में निश्चित था, उसे किसी बात का कोई संकोच या संन्देह नहीं था, उन सब बातों के विषय में भी जिन के द्वारा उसने अब्राहम को आशीष दी थी। इसके आगे, इसकी सम्पूर्णता उसके वचन के अनुसार पूरी हो जाएगी, और कोई भी ताकत उसकी पूर्णता को बदलने, बाधित करने, चोट पहुँचाने, या परेशान करने में सक्षम नहीं होगा। जो हुआ उसके बावजूद, परमेश्वर के वचनों की पूर्णता और उपलब्धि को कोई भी रद्द नहीं कर सकता है। यह सृष्टिकर्ता के मुँह से बोले गए वचनों की सामर्थ है, और सृष्टिकर्ता का अधिकार ही है जो मनुष्य के इन्कार को सह नहीं सकता है! इन शब्दों का पढ़ने के बाद, क्या तुम अभी भी सन्देह महसूस करते हो? इन वचनों को परमेश्वर के मुँह से कहा गया था, और परमेश्वर के वचनों में सामर्थ, प्रताप, और अधिकार है। ऐसी शक्ति और अधिकार को, और प्रमाणित तथ्यों की पूर्णता की अनिवार्यता को, किसी भी सृजे गए प्राणी और न सृजे गए प्राणी द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है, और न ही कोई सृजा प्राणी और न अनसृजा प्राणी उससे बढ़कर उत्कृष्ट हो सकता है। केवल सृष्टिकर्ता ही मानवजाति के साथ ऐसे अन्दाज़ और ऊँची और नीची आवाज़ में बात कर सकता है, और प्रमाणित तथ्यों ने साबित किया है कि उसकी प्रतिज्ञाएँ खोखले शब्द, या बेकार की घमण्ड की बातें नहीं हैं, परन्तु अद्वितीय अधिकार का प्रदर्शन हैं जिस से कोई व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ बढ़कर नहीं हो सकता है।
परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों और मनुष्य द्वारा बोले गए वचनों में क्या अन्तर है? जब तुम परमेश्वर के द्वारा बोले गए वचनों को पढ़ते हो, तुम परमेश्वर के वचनों की शक्ति, और परमेश्वर के वचनों के अधिकार का एहसास करते हो। जब तुम लोगों को ऐसी बातें करते सुनते हो तो तुम को कैसा लगता है? क्या तुम्हें महसूस होता है कि वे बहुत अधिक अभिमानी, या घमण्ड से भरे हुए हैं, और खुद का दिखावा करते हैं? क्योंकि उनके पास ऐसी सामर्थ नहीं है, उनके पास ऐसा अधिकार भी नहीं है, और इस प्रकार वे ऐसी चीज़ों को प्राप्त करने में पूरी तरह असमर्थ हैं। भले ही वे अपनी प्रतिज्ञाओं के प्रति इतने निश्चित हैं परन्तु उनकी टिप्पणियाँ केवल लापरवाही को दर्शाती हैं। यदि कोई ऐसे शब्दों को कहता है, तो वे निःसन्देह अभिमानी, और अति आत्मविश्वासी होंगे, और अपने आप को प्रधान स्वर्गदूत के स्वभाव के अति उत्तम उदाहरण के रूप में प्रकट कर रहे होंगे। ये वचन परमेश्वर के मुँह से आए हैं; क्या तुम इन में अभिमान की कोई बात पाते हो? क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन बस एक मज़ाक हैं? परमेश्वर के वचन अधिकार हैं, परमेश्वर के वचन प्रमाणित सत्य हैं, और उसके मुँह से वचन के निकलने से पहले ही, दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर कुछ करने का निर्णय लेता है, तब ही उस चीज़ को पहले से ही पूरा करा जा चुका होता है। ऐसा कहा जा सकता है कि जो कुछ परमेश्वर ने अब्राहम से कहा था वह एक वाचा थी जिसे परमेश्वर ने अब्राहम के साथ बाँधा था, और परमेश्वर के द्वारा अब्राहम से की गई प्रतिज्ञा थी। यह प्रतिज्ञा एक दृढ़ सच्चाई थी, साथ ही एक पूर्ण सच्चाई, और इन सच्चाईयों को परमेश्वर की योजना के अनुसार, परमेश्वर के विचारों में धीरे धीरे पूरा किया गया। अतः, परमेश्वर द्वारा ऐसी बातों को कहने का यह मतलब नहीं है कि उसके पास एक अभिमानी स्वभाव है, क्योंकि परमेश्वर ऐसी चीज़ों को पूरा करने में सक्षम है। उसके पास ऐसी सामर्थ और अधिकार है, और ऐसे कार्यों को पूरा करने में पूर्णतया सक्षम है, और उनका पूर्ण होना पूरी तरह उसकी योग्यता के दायरे में हैं। जब परमेश्वर के मुख से ऐसे वचन बोले जाते हैं, तो वे परमेश्वर के सच्चे स्वभाव का प्रकाशन एवं प्रकटीकरण होते हैं, वे परमेश्वर की हस्ती एवं अधिकार का एक पूर्ण प्रकाशन एवं प्रदर्शन होते हैं, और ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर की पहचान के प्रमाण के रूप में कहीं अधिक सही और उचित होता है। बोले गए ऐसे कथनों की रीति, अन्दाज़, और शब्द सृष्टिकर्ता की पहचान के बिलकुल उचित चिन्ह हैं, और परमेश्वर की खुद की पहचान के प्रकटीकरण से पूरी तरह से मेल खाते हैं, और उसमें कोई झूठा दिखावा, या अशुद्धता नहीं है; वे पूरी और सम्पूर्ण रीति से सृष्टिकर्ता के अधिकार और हस्ती का पूर्ण प्रदर्शन हैं। जहाँ तक जीवधारियों की बात है, उनके पास न तो यह अधिकार है, और न ही यह हस्ती, और परमेश्वर के द्वारा दिए गए अधिकार तो उनके पास बिलकुल भी नहीं हैं। यदि मनुष्य ऐसे व्यवहार से धोखा देता है, तो यह निश्चित रूप से उसके दूषित स्वभाव का घमण्ड है, और यह मनुष्य के अभिमान और अनियन्त्रित महत्वकांक्षाओं का निम्न स्तर का प्रभाव होगा, तथा किसी और का नहीं बल्कि दुष्ट आत्मा की नीच इच्छाओं का खुला प्रदर्शन होगा, अर्थात् शैतान का जो लोगों को धोखा देना चाहता है, और परमेश्वर को धोखा देने के लिए लोगों को बहकाना चाहता है। और परमेश्वर उस पर कैसे ध्यान देगा जिसे ऐसी भाषा के द्वारा प्रकट किया गया है? परमेश्वर कहेगा कि तुम अन्याय से उसका स्थान पाना चाहते हो और यह कि तुम उसका रूप धारण करना और उसे उसके स्थान से हटाना चाहते हो। जब तुम परमेश्वर के बोले गए वचनों के अन्दाज़ का अनुकरण करते हो, तो तुम्हारा इरादा होता है कि लोगों के हृदयों से परमेश्वर के स्थान को हटा दें, और मानवजाति के जीवन के उस स्थान पर अवैध कब्ज़ा कर लें जो सचमुच में परमेश्वर का है। सीधे और सरल रूप में, यह शैतान है; यह प्रधान स्वर्गदूत के वंशों के कार्य हैं; जो स्वर्ग के लिए असहनीय है! तुम लोगों के बीच में, क्या कोई है जिसने कभी लोगों को गुमराह करने और धोखा देने के इरादे से, किसी निश्चित तरीके से, कुछ वचनों को कहने के द्वारा परमेश्वर का अनुकरण किया हो, और उन्हें यह एहसास दिलाया हो मानो इस व्यक्ति के वचनों और कार्यों में परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ था, मानो इस व्यक्ति की हस्ती एवं पहचान अद्वितीय थे, और यहाँ तक कि मानो इस व्यक्ति के बोलने का अन्दाज़ भी परमेश्वर के समान था? क्या तुम सबने कभी इसके समान कुछ किया है? क्या तुम लोगों ने कभी अपने सन्देशों में परमेश्वर के अन्दाज़ का अनुकरण किया है, ऐसी भाव भंगिमाओं और उस अनुमानित शक्ति और अधिकार के साथ जो परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाते हैं? क्या तुम लोगों में से अधिकतर अक्सर इस तरह से अभिनय करते हैं, या अभिनय करने की योजना बनाते हैं? अब, जब तुम लोग सचमुच में सृष्टिकर्ता के अधिकार को देखते, एहसास करते और जानते हो, और पीछे मुड़कर देखते हो कि तुम लोग क्या किया करते थे, और अपने आपको प्रकट किया करते थे, तो क्या तुम लोग शर्मिन्दी महसूस करते हो? क्या तुम सब अपनी नीचता और निर्लज्जता का एहसास करते हो? ऐसे लोगों के स्वभाव और हस्ती को टुकड़े टुकड़े करने के बाद, क्या ऐसा कहा जा सकता है कि वे नरक के शापित मनुष्य की सन्ताने हैं। क्या ऐसा कहा जा सकता है कि हर कोई जो ऐसा करता है वह अपने ऊपर लज्जा लेकर आता है? क्या तुम सब इस प्रवृति की गम्भीरता को पहचानते हो? और यह कितना गम्भीर है? जो इस प्रकार कार्य करते उन लोगों का इरादा परमेश्वर का अनुकरण करना होता है। वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, और लागों से परमेश्वर के रूप में अपनी आराधना करवाना चाहते हैं। वे लागों के हृदयों से परमेश्वर के स्थान को हटा देना चाहते हैं, और ऐसे परमेश्वर से छुटकारा पाना चाहते हैं जो मनुष्य के बीच में कार्य करता है, ताकि लोगों को नियन्त्रित करने, लोगों को निगलने, और उनकी सम्पत्ति को हड़पने के मकसद को पूरा कर सकें। हर किसी के पास ऐसी अर्द्धसचेत इच्छा और महत्वाकांक्षा होती है, और हर कोई ऐसे दूषित शैतानी हस्ती में जीवन बिताता है और ऐसे शैतानी स्वभाव में जीवन बिताता है जिसमें वे परमेश्वर के शत्रु होते हैं, और परमेश्वर को धोखा देते हैं, और परमेश्वर बनना चाहते हैं। परमेश्वर के अधिकार के शीषर्क के ऊपर मेरे सभा के विचार विमर्श का अनुसरण करते हुए, क्या तुम लोग अभी भी परमेश्वर का रूप धारण करने की इच्छा और आकांक्षा करते हो, या परमेश्वर की नकल करना चाहते हो? और क्या तुम लोग अभी भी ईश्वर होने की इच्छा रखते हो? क्या तुम सब अभी भी परमेश्वर बनना चाहते हो? मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के अधिकार की नकल नहीं की जा सकती है, और मनुष्य के द्वारा परमेश्वर की पहचान और हैसियत का रूप धारण नहीं किया जा सकता है। यद्यपि तुम परमेश्वर के बोलने के अन्दाज़ की नकल करने में सक्षम हो, किन्तु तुम परमेश्वर की हस्ती की नकल नहीं कर सकते हो। हालांकि तुम परमेश्वर के स्थान पर खड़े होने और उसका भेष बदलने में सक्षम हो, किन्तु तुम कभी वह सब कुछ नहीं कर पाओगे जो परमेश्वर करने की इच्छा करता है, और कभी सभी चीज़ों पर शासन नहीं कर पाओगे और न ही उनको आज्ञा दे पाओगे। परमेश्वर की नज़रों में, तुम हमेशा एक छोटे से जीव बने रहोगे, और इसके बावजूद कि तुम्हारी कुशलताएँ और योग्ताएँ कितनी महान हों, इसके बावजूद कि तुम्हारे पास कितने सारे वरदान हों, तुम सम्पूर्ण रूप से सृष्टिकर्ता के शासन के अधीन हो। यद्यपि तुम कुछ प्रभावकारी शब्द बोलने में सक्षम हो, इससे न तो यह दिखाई देता है कि तुम्हारे पास सृष्टिकर्ता की हस्ती है, और न ही यह प्रदर्शित करता है कि तुम्हारे पास सृष्टिकर्ता का अधिकार है। परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ स्वयं परमेश्वर की हस्ती है। उन्हें सीखा, या बाहर से जोड़ा नहीं गया था, किन्तु वे स्वयं परमेश्वर की हस्ती के स्वाभाविक मुख्य भाग हैं। इस प्रकार सृष्टिकर्ता और जीवधारियों के मध्य संबंध को कभी भी पलटा नहीं जा सकता है। जीवधारियों में से एक होने के कारण, मनुष्य को स्वयं अपनी स्थिति को बना कर रखना होगा, और शुद्ध अंतःकरण से व्यवहार करना होगा, और जो उसे सृष्टिकर्ता के द्वारा सौंपा गया है कर्तव्यनिष्ठा के साथ उसकी सुरक्षा करना होगा। एक मनुष्य को लीक से हटकर, या उसकी क्षमता के दायरे से बाहर होकर काम नहीं करना चाहिए, या ऐसी चीज़ों को नहीं करना चाहिए जो परमेश्वर के लिए घृणित हैं। मनुष्य को महान, या अद्भुत, या दूसरों से श्रेष्ठ होने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, और न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करनी चाहिए। इसीलिए लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान और अद्भुत बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना और भी अधिक लज्जाजनक है; यह घृणित है, और यह नीचता है। जो काम तारीफ के काबिल है, और जिसे किसी भी चीज़ से ज्यादा प्राणियों को थामे रहना चाहिए, वह है एक अच्छा जीवधारी बनना; यह ही वह एकमात्र लक्ष्य है जिसे पूरा करने का निरंतर प्रयास सब लोगों को करना चाहिए।
"वचन देह में प्रकट होता है" से
          से: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-परमेश्वर के वचनों के उद्धरणों
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सम्बन्धित पठन: प्रश्न 34: धार्मिक पादरियों और प्राचीन लोगों को बाइबल का सशक्त ज्ञान है, वे प्रायः लोगों के समक्ष बाइबल का विस्तार करते हैं और उन्हें बाइबल का सहारा बनाये रखने के लिए कहते हैं, इसलिए बाइबल की व्याख्या करना और उसकी प्रशंसा करना क्या वास्तव में परमेश्वर की गवाही देना और प्रशंसा करना है? ऐसा क्यों कहा जाता है कि धार्मिक पादरी और प्राचीन लोग ढोंगी फरीसी हैं? हम अभी भी इसको समझ नहीं सकते हैं, तो क्या तुम हमारे लिए इसका जवाब दे सकते हो?
परमेश्वर का कार्य कितना ज्ञानपूर्ण है!
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