(बबूल) ببول
Koi na ho janaze par mere
Tum zaroor aana
Ki ek tum the aur ek yaar mera
Dene mere janze ko sahara
Kam-az-kam marke kisi ko takleef na du
Dhoondhna ek akela kinara
Jaha koi na ata ho
Aur mujhe vahi dafnana
Parinde bhi na aae tanhai mitane
Ek babool ka paudha lagana
Zamana n aae manzoor hai
Par tum zaroor ana
~Zameer Fuhsh
कोई ना हो जनाज़े पर मेरे
तुम ज़रूर आना
की एक तुम थे और एक यार है मेरा
देने कफ़न को मेरे सहारा
कम-अज़-कम मारके किसी को तकलीफ़ ना दु
ढूँढना एक अकेला किनारा
जहाँ कोई न अता हो
और मुझे वही दफ़ना
परिंदे भी ना आए तन्हाई मिटाने
एक बबूल का पौधा लगाना
ज़माना न आएँ मंज़ूर है
पर तुम ज़रूर आना
~ ज़मीर फहश
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#गरिमा_गीता_की_Part_75
मनमुखी साधना व्यर्थ।।
गीता अध्याय 13 के श्लोक 24 में कहा है कि आत्मतत्व में पहुँचने के लिए कुछ तो आत्मध्यान (मैडिटेशन) के द्वारा दूसरे कुछ ज्ञान योग (केवल कीर्तन व पाठ करके ) से, दूसरे जो वे कर्मयोग से आत्म दर्शन करते हैं। क्योंकि परमात्मा पूर्णब्रह्म को पाने के लिए आत्म शुद्धि की जाती है। उसके तरीके ऊपर वर्णन किए हैं। आत्म शुद्धि तो समझो खेत (क्षेत्र) संवार दिया। यदि उसमें सत्यनाम बीज नहीं बोया तथा सारनाम रूपी कलम नहीं चढ़ाई तो भी केवल आत्म शुद्धि से भी बात नहीं बनेगी अर्थात् मुक्ति नहीं। इसलिए काल भगवान सत्यनाम की जानकारी नहीं देता। केवल एक अक्षर औंकार (ऊँ) मन्त्र का जाप बताता है। यह मन्त्रा (बीज) है। इस मन्त्रा से केवल स्वर्ग-महास्वर्ग तथा फिर जन्म-मरण ही प्राप्त हो सकता है अर्थात् पूर्ण मुक्ति नहीं। यहाँ पर ज्ञान तो दे दिया आम के पौधे (पूर्णब्रह्म-पूर्णपुरुष) का परंतु बीज (मन्त्र-नाम) दे दिया बबूल (काल-ब्रह्म) का। इस लिए जीव आम का फल (पूर्ण मुक्ति) प्राप्त नहीं कर पाते तथा अंत में तप्त शिला पर काल भूनता है उस समय पछताते हैं। फिर क्या बने?
कबीर, करता था तो क्यों रह्या, अब कर क्यों पछताय। बोवै पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय।।
विशेष:-- गीता अध्याय 13 श्लोक 24 का भावार्थ है कि जो सांख्य योगी अर्थात् तत्वज्ञानी शिक्षित व्यक्ति हैं वे अपनी साधना तत्वज्ञान के आधार से दूध और पानी छानकर प्रारम्भ करते हैं। दूसरे कर्म योगी अर्थात् जो ज्ञानी व शिक्षित हैं। उनको शिक्षित व्यक्ति जैसी सलाह देता है वे उनके कहने पर कर्मयोग आधार से अर्थात् ज्ञान की कांट छांट न करके भक्ति कर्म में लग जाते हैं। वे कर्मयोगी कार्य करते.2 साधना करते हैं। गीता अध्याय 5 श्लोक 4-5 में कहा है कि दोनों प्रकार के साधक (सांख्य योगी व कर्मयोगी) समान भक्ति फल प्राप्त करते हैं।
।। भक्ति के लिए अक्षर ज्ञान आवश्यक नहीं।।
गीता अध्याय 13 के श्लोक 25 में कहा है कि परंतु इनसे अन्य भक्त स्वयं विद्वान न होने से दूसरों से सुनकर उपासना करते हैं तथा वे सुन कर मार्ग पर लगने वाले (श्रुति परायणः) भी यदि उनकी भक्ति पूर्ण संत के अनुसार है (सतनाम व सारनाम की करते हंै) तो मृत्यु (जन्म-मरण) से तर जाते हैं मुक्त हो जाते हैं, चाहे वे विद्वान भी न हों अर्थात् भक्ति मुक्ति के लिए पढ़ा लिखा अर्थात् विद्वान होना आवश्यक नहीं है। उसकी साधना शास्त्र विधि अनुसार होनी चाहिए।
गीता अध्याय 13 के श्लोक 26 में वर्णन है कि हे अर्जुन! जितने भी स्थावर जंगम जीव हैं वे क्षेत्र (शरीर रूप खेत) तथा क्षेत्रज्ञ (ब्रह्म) के संयोग से ही उत्पन्न समझ। क्योंकि इस मिट्टी आदि पांच तत्व के पुतले को पूर्ण पुरुष सतपुरुष की शक्ति ही चला रही है तथा काल अपनी प्रकृति (दुर्गा) के संयोग से जीव उत्पन्न करता है।
पूर्ण ज्ञानी वही है जो केवल पूर्ण परमात्मा को अविनाशी मानता है।।
गीता अध्याय 13 के श्लोक 27 का भाव है कि परमात्मा (पूर्णब्रह्म) को जो अविनाशी रूप से जानता है वह (साधक) सही जानने वाला है कि जीव स्थूल शरीर में नष्ट होता नजर आता है परंतु सूक्ष्म शरीर में जीवित रहता है। वह भी परमात्मा की शक्ति से ही जीवित है। उसकी शक्ति के बिना जीव निष्क्रिय है। जैसे देवी भागवत् महापुराण में प्रकृति देवी (अष्टंगी) कहती है कि हे ब्रह्मा, विष्णु, महेश! तुम और सर्व प्राणी मेरी शक्ति से चल रहे हो। यदि मैं अपनी शक्ति वापिस ले लूं तो तुम, जगत तथा सर्व प्राणी शुन्य (असहाय) हो जायेंगे। देखें देवी भागवद् महापुराण। फिर इस प्रकृति (माया) को शक्ति सतपुरुष से ही प्राप्त है। इसलिए शक्ति का मूल श्रोत पूर्ण परमात्मा होने का कारण कहा है कि उसी शक्ति से क्षेत्रज्ञ (काल) के द्वारा जीव उत्पन्न होते हैं।
गीता अध्याय 13 के श्लोक 28 में कहा है कि जो साधक उसी परमात्मा को समान भाव से सर्वत्र स्थित मानता है वह आत्मघात नहीं कर रहा है। (सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी उसकी ऊष्णता निराकार रूप में सर्वव्यापक है)सत्य ज्ञान होने से सही मार्ग पर लग कर पूर्ण गुरु (जो पूर्णब्रह्म के सतनाम व सारनाम का दाता है) से नाम ले कर मुक्त हो जाता है। इससे परमगति (पूर्ण मुक्ति) को प्राप्त होता है। क्योंकि पूर्ण परमात्मा सतपुरुष की भक्ति न करके तीन लोक (ब्रह्मा, विष्णु, शिव व माई-प्रकृति व काल-ब्रह्म) की साधना से जीव की लख चैरासी जूनियों में भ्रमणा-भटकणा नहीं मिटती। इसलिए यह साधना व्यर्थ है। यह काल साधना तो सर्व जीव बहुत बार कर चुके हैं। इन्द्र, कुबेर, ईश (भगवान पद ब्रह्मा, विष्णु, शिव) जैसी अच्छी उपाधी काल (ब्रह्म) साधना से अनेकों बार प्राप्त की। परंतु पूर्ण संत न मिलने से पूर्ण परमात्मा (परमेश्वर) का ज्ञान नहीं हुआ। इसलिए उत्तम साधना नहीं मिली। पूर्ण मुक्ति (परमगति) नहीं हुई। अध्याय 13 में सारे अध्याय में पूर्ण परमात्मा की जानकारी दी है कि उस परमात्मा की भक्ति से जीव पूर्ण मोक्ष अर्थात् अनादि मोक्ष प्राप्त कर सकता है। परंतु गीता जी में पूर्ण पुरुष की भक्ति कैसे करें? यह जानकारी कहीं नहीं। वह जानकारी केवल पूर्ण संत (सतगुरु) अर्थात् तत्वदर्शी संत ही दे सकते हैं। जिसका विवरण गीता अध्याय 4 मंत्र 34 में है। इसलिए गीता जी के अध्याय 13 के श्लोक 28 में कहा है कि जिसको उस परमात्मा की वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो गया वह (आत्मना आत्मानम्, न हिनस्ति) आत्म घात से बच गया। इसमें स्पष्ट है कि काल (ब्रह्म) स्वयं कहता है कि यदि मेरी भक्ति साधक करता है तो कुछ समय के लिए जन्म-मरण (कल्प अंत तक) मैं भी समाप्त कर सकता हूँ। मेरी भक्ति भी तीनों गुणों (ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण) से ऊपर उठ कर (अर्थात् इन भगवानों की भक्ति को भी त्याग कर) केवल एक अक्षर ‘‘ऊँ‘‘ का जाप करें। परंतु पूर्ण मुक्ति के लिए उस परमात्मा (पूर्ण ब्रह्म) की भक्ति ��ूर्ण आचार्य (गुरु) से नाम मन्त्रा लेकर उसकी सेवा श्रद्धा से करके प्राप्त कर सकते हैं। इससे स्वसिद्ध है कि जो पूर्णब्रह्म की भक्ति करता है वह आत्मघात (आत्म हत्या) से बच जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि इस भक्ति के अतिरिक्त जो आन देव (ब्रह्मा, विष्णु, शिव, देवी-देवताओं, जिनकी भक्ति तो पहले ही ब्रह्म साधना में भी बाधक है इससे आगे ब्रह्म-काल) की साधना करना भी आत्मघात के समान अर्थात् व्यर्थ है। इसी का प्रमाण यजुर्वेद अध्याय 40 में भी है।
कबीर साहेब कहते हैं -
कबीर, जो यम (काल) को कत्र्ता (भगवान) भाखै (कहै)।
तजै सुधा (अमृत) नर विष (जहर) को चाखै।।
इस वाणी का भावार्थ है कि जो कोई साधक ब्रह्म (काल/यम) को भगवान जान कर पूजता है तथा वह अमृत (सतपुरुष) को छोड़ कर जहर (काल की साधना से जन्म-मरण, चैरासी लाख योनियों की पीड़ा रूपी जहर) को चाख रहा है। अर्थात् पूर्ण परमात्मा के पूर्ण मोक्ष का आनन्द न मिल कर काल (ब्रह्म) साधना से होने वाले जन्म-मरण व अन्य प्राणियों के कष्टमय जीवन को आनन्द समझ रहा है। इसलिए उस परमात्मा (पूर्णब्रह्म) की साधना करो तथा सतलोक में जहाँ सुख का सागर है अर्थात् कोई कष्ट नाम की वस्तु नहीं है, न जन्म-मरण है, वहाँ चलो!
।। शब्द।।
मन तू चलि रे सुख के सागर। जहां शब्द सिंध रत्नागर।।टेक।।
कोटि जन्म जुग भरमत हो गये, कुछ नहीं हाथि लग्या रे।
कूकर (कुत्ता) शुकर (सूअर) खर (गधा) भया बौरे, कौआ हंस बुगा रे।।1।।
कोटि जन्म जुग भरमत हो गये, कुछ नहीं हाथि लग्या रे।
कूकर (कुत्ता) शुकर (सूअर) खर (गधा) भया बौरे, कौआ हंस बुगा रे।।1।।
कोटि जन्म जुग राजा किन्हा, मिटि न मन की आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांढा, मिल्या न निरगुण रासा।।2।।
इन्द्र कुबेर ईश की पदवी, ब्रह्मा वरूण धर्मराया।
विष्णु नाथ के पुर कूं पहुँचा, बहुरि अपूठा आया।। 3।।
असंख जन्म जुग मरते होय गये, जीवित क्यौं न मरै रे।
द्वादश मधि महल मठ बौरे, बहुरि न देह धरै रे।।4।।
दोजिख भिसति सबै तैं देखंे, राज पाट के रसिया।
तीन लोक से तृप्त नाही, यो मन भोगी खसिया
सतगुरु मिलैं तो इच्छा मेटैं, पद मिलि पदह समाना।
चल हंसा उस देश पठाऊं, आदि अमर अस्थाना।।6।।
च्यारि मुक्ति जहां चंपी करि हैं, माया होय रही दासी।
दास गरीब अभै पद परसै, मिले राम अविनासी।।7।।
भावार्थ:- कृपया इस शब्द को ध्यान पूर्वक विचारें। इसमें आदरणीय गरीबदास जी महाराज कह रहे हैं कि हे मन! तू सुख के सागर सतलोक चल। इस काल (ब्रह्म) लोक में असंखों जन्म मरते-जन्मते हो गए। अभी तक कुछ हाथ नहीं आया। चैरासी लाख योनियों का कष्ट करोड़ों बार उठाया। कुकर (कुत्ता) सुकर (सुअर) खर (गधा) जैसी कष्टमई योनियों में तंग पाया। आगे कहा कि ब्रह्म (काल) साधना करके ऊँ जाप, तप, यज्ञ, हवन, दान आदि करके राजा बना। इन्द्र (स्वर्ग का राजा) बना और ब्रह्मा-विष्णु-शिव के उत्तम पद पर भी रहा। कुबेर (धन का देवता) बना, वरुण (जल का देवता) भी बना और उत्तम लोक विष्णु जी के लोक में भी विष्णु (कृष्ण, राम आदि) की साधना करके कुछ समय पुण्य कर्मों के भोग को भोगकर वापिस जन्म-मरण, नरक के चक्र में गिर गया।
यदि तत्वदर्शी संत सतगुरू मिल जाता तो काल लोक को असार तथा सत्यलोक को सर्व सुखदायी का ज्ञान करवाकर काल ब्रह्म के लोक की सर्व नाशवान वस्तुओं की इच्छा समाप्त करता। स्वर्ग का राजा यानि देवराज इन्द्र भी मरता है। फिर गधा बनता है तो पृथ्वी के राज को प्राप्त करके भी राज भोगकर राजा गधा बनता है। इस प्रकार के ज्ञान से पूर्ण परमात्मा की भक्ति से साधक का मन काल ब्रह्म के लोक से हटकर परम अक्षर ब्रह्म यानि सतपुरूष में तथा उसके सनातन परम धाम की प्राप्ति की हृदय से इच्छा करता है। इस कारण से ‘‘जहाँ आशा तहाँ बासा होई, मन कर्म वचन सुमरियो सोई।’’
भावार्थ है कि साधक की आस्था जिस प्रभु तथा लोक को प्राप्त करने की होती है तो उसी को प्राप्त करता है। उसी लोक को प्राप्त करने की साधना करके उसी में निवास करता है। इसलिए उसी का स्मरण मन-कर्म-वचन से करना चाहिए। तत्वज्ञान से साधक की आस्था सतपुरूष (परमेश्वर) तथा उसके सतलोक को प्राप्त करने की होती है। जिस कारण से अमर लोक प्राप्त होता है। फिर उस साधक की कभी मृत्यु नहीं होती। वह परम अक्षर ब्रह्म यानि अविनाशी राम कबीर मिल जाता है। ऐसी सच्चाई तत्वदर्शी संत बताता है। सत्यलोक में जो चार मुक्तियों का सुख है। वह सदा बना रहता है। काल ब्रह्म के लोक में एक दिन समाप्त होता है। साधक नरक में भी जाता है। अन्य प्राणियों के शरीरों में भी कष्ट भोगता है। सतलोक में सदा सुखी रहता है।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
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जालना शहर के भोकरदन नाका परिसर में स्थित कब्रिस्तान में अतिक्रमण करने के इरादे से पेड़ों को नुकसान पहुंचाया, कब्रों को भी क्षति पहुंची
* सदर बाजार पुलिस थाने में चारों के खिलाफ मामला दर्ज
With the intention of encroachment in the cemetery located in Bhokardan Naka complex of Jalna city, trees were damaged, graves were also damaged
जालना: जालना शहर के भोकरदन नाका परिसर में स्थित मुस्लिम कब्रिस्तान पर अवैध कब्जा करने और कब्रिस्तान में से रास्ता बनाने के लिए जेसीबी मशीन से कब्रिस्तान के अनेक बबूल के पेड़ों को काट दिया गया. इस…
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#सत_भक्ति_संदेश
कबीर साहेब जी कहते हैं कि बुरा काम करके सुख की चाह करना, बिल्कुल निरर्थक है। बबूल का वृक्ष लगाकर, उस पर आम जैसा मीठा फल कैसे मिल सकता है ?
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